Saturday, April 18, 2009

समय अभी शेष है





सूरज की रोशनी उसने पढ़ी नहीं, चाँदनी में जलता है क्या कभी जाना नहीं, उम्रदराज पेडों के तनों से झांकते चेहरों को समझा नहीं, मानता रहा कि सदा पैरों तले कुचले जाने वाली दूब को कोई शिकायत क्यों होनी चाहिए हमारे धर्म में किसी पवित्र अनुष्ठान को दूब के बिना संपन्न होते देखा है कहीं, कहता रहा ऑफिस में लगे एक्वेरियम में मछलियाँ निहारने से ह्रदय की धड़कनों को खोयी हुई लय मिल जाती है।

इलेकट्रोंस से बनती बिगड़ती तस्वीरों में ढूंढता है मृत संवेदनाएं एक निश्चित अन्तराल पर हँसता हुआ उडाता है मजाक आदमीयत की, उसने कभी शाम बेवजह बाहर नही बितायी, बेवजह वह बोलता भी नहीं है उसे अपने गिने चुने शब्दों को दोहराते रहने से कभी बोरियत नहीं होती, उसे कुछ नही होता उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ लेमिनेट कर दी गई हों जैसे, मेरी चुप्पी से ही फूटते हैं उसके बोल...

तुम मुझे समझती क्यों नही?
किसको?
मुझे...
मुझे किसको ?
आदित्य नारायण सिंह को

मैं एक लम्बी साँस लेती हुई ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ, इसे अपना नाम याद है अभी , ये किसी कोड में नही बदला है, इसके पूर्ण यन्त्र में परिवर्तित होने का समय अभी शेष है...



॥आत्ममुग्धता ॥

दिल की बात कहने का हुनर जुबां को भी दे
इशारों के राज़ पढ़ने की आदत नहीं मुझे ॥



Sunday, April 5, 2009

चलता फिरता डॉलर है



सनसनाती हुई हवा का कोई झोंका ज़िन्दगी के उन हिस्सों को उघाड़ जाता है जिन्हें ढकने की हज़ार तरतीबें माँ, बुआ, दादी और सहेलियों के मुंह से निकल कर मेरे भीतर तक चिपकी रही, आसमान के टुकड़े कर झांकते रहे अपनी अपनी खिड़की से और फ़िर हल्दी से सी दिया एक तार सा आसमान... इसको हमारा आसमान कहते हैं उजला सा, खिला सा, बहका सा, सूना सा, नीला सा कितने गिनेंगे रंग आप... पर मेरे यहाँ एक ही मौसम आ कर ठहर गया है एकांत से भरे आसमान का मौसम।

मेट्रो की नमी भरी सीटों में, लोकल की लटकती हथ्थियों में, सपोर्ट के लिए खड़ी रंग उतरी रेलिंग में अजीब कशिश रही होगी कि दिन अंधेरे वह उन लोहे के घोड़ों पर सवार हो जाता और फ़िर प्लास्टिक के खिलोने से बोलता यांत्रिक स्वर में किसी विमान उड़ान में देरी की सूचना सा और मेरी ज़िन्दगी के सफ़र का एक और दिन रात बारह बजे अकेले रोटी के टुकडों को तोड़ते, पनीर से खेलते हुए बीत जाता।

हल्दी के रंग में मुझे पिलपिले रिश्तों का रंग दिखाई देता, सिंदूर किसी बुझते हुए सूरज से अलग रंग में नही खिल पाता, जरीवाले कपड़े कैंचुली छोड़ते से दीखते... बस ऐसे ही रंग रह गए हैं कबूतर खाने से घर में, खिड़की में रखे मनी प्लांट की पत्तियों में मुझे तुम्हारी सूरत दिखाई दे जाती है यदा कदा और मैं हरे रंग का वह पात्र बन जाती हूँ जिसमे तुम्हारी जड़ें होने के बावजूद नहीं दिखाई पड़ती... ना तुम्हें ना किसी और को। इसी का तो उत्साह था सबको घर में मौसी ने कहा भी था... लड़का क्या है, चलता फिरता डॉलर है...




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तुम क्या जानो

एक अरसे से तुमसे रूठी नहीं हूँ मैं
साथ रहते खुश हूँ ऐसा भी तो नहीं॥

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Wednesday, April 1, 2009

वक्त क्या हुआ है




दराज के अंधेरे कोने में जमी गर्द पर फूंक मारते ही अलसाये शब्दों ने जम्हाई लेते हुए पूछा वक्त क्या हुआ है ? यही कोई एक दोस्त को खोने जितना हुआ होगा, उदास मन बोला किंतु पुस्तक के पीछे से कोई पुराना चित्र भी दिखाई दे गया जो वक्त के कुछ और बीत जाने का आभास दे रहा था, यही पर कुछ पल असमय मर गए थे उनकी अस्थियाँ भी अब सीने से लगाने लायक नही रही तो झाडू से उनको बुहारा और एक अँधेरी सदी के मुहाने पर रखे कूड़ादान के भीतर उलट दिया। वे निशब्द अपनी नवीन यात्रा पर चल दिए हैं तो तस्वीर पर हाथ घुमाया जैसे कोई बनिया अपने उधार के खातों से किसी का प्यार वसूलना चाहता हो।

इस पहाड़ से बड़े हौसले वाले इन्सान ने जंगल में कंदराओं को, पानी में मूंगे की बस्तियों को, आसमान में फैले धूल के गुब्बार को, सूखे जंगल के अकेले पेड़ को, बुझी हुई नदी की पपडी से झांकते किसी जीव के खोल को यात्रा कर के खोजा और वहाँ शब्दों का कूड़ा करकट छोड़ आया, मेरे समय में भी घोर अकाल है एक ऐसी जगह का जहाँ शब्द न हों, जहाँ हो नितांत सूनापन, जहाँ कोई ये न पूछे की वक्त क्या हुआ है ?


असामयिक मृत्यु

याद की शक्ल बुनने की ताकत जिन शब्दों में नहीं

वे ही सदियों से पूछते हैं ऐ राजो वक्त क्या हुआ है.