Sunday, February 21, 2010

१४११ हंजू को नहीं पता कैसा दिखता है बाघ ?

मेरे घर के सामने
घना जंगल नहीं है
हरित पल्लव और
बासंती परिधान से सजी
धरती भी नहीं.

एक चालीस के पार विधवा
मींची हुई आंखों से
बुनती है एक बिछावन और
पेचवर्क से सुलझा लेना चाहती है
अपनी ज़िंदगी के उलझे हुए पेच.

सफ़ेद सूती कपड़े पर
रंगीन धागों से उगाती है जंगल
किनारे पर बिठाती है हाथियों का पहरा
हर एक टांक के बाद
झांक लेती है गली के पार
कि उसके बारह साल के बच्चे की
अब चाय की दुकान से छुट्टी हुई होगी.

दो लोगों के पलंग पर
बिछ जाने लायक
इस चादर के पूरा होते ही
उसने सोच रखा है
अपनी आँखें जरूर दिखाएगी
शहर के बड़े डागदर को.

अब साफ़ दिखाई नहीं देते हैं कटाव
पिछली चादर में
हाथी की पीठ पर लग गया था
ऊंट का कूबड़
इस पर वह देर तक खिलखिलाई थी
और अगले पूरे महीने
उसने बिना टोस्ट के पी थी चाय.

अपने हुनर की तारीफ में कहती है
बाई जी
मेरी चादर के पंछी बोलते हैं
हाथी पी जाते हैं घडा भर शराब
तोते लड़ाते रहते हैं चोंच प्यार से और
आदमी करता है शिकार
जैसे ईंट के भट्टे से
लौटता था दीनिये का बाप.

हंजू,
तुमने कभी बाघ नहीं बनाया ?
मेरे इस सवाल पर विस्मित हो
पूछती है कैसा दिखता है बाघ ?

[ Image Courtesy : 4to40।com ]

Thursday, February 4, 2010

तेरी याद जैसे रेत



धूल सी उड़ती है ख्वाबों में
धुंधले चेहरे
और ज्यादा खो जाते हैं
सूखे हुए इस दरिया के पार

स्मृतियों की पदचाप
सृष्टि के विनाश को उठते
वर्तुल सा भ्रम जगाती है

कि आस पास ही है
प्यास का फंदा

फिर भी सदियों से
कुओं के बचे हुए हैं कुछ पाट
और कुछ टूटी फूटी इबारतें
जिंदगी के लिए.

रेत पर पसरी
नाउम्मीद ख्वाहिशें विचरती है
मृग सी अमिट प्यास लिए

अगर मैं मरूंगी
अपने प्रियजनों के सम्मुख
तो देह सदगति पायेगी

न भी हुआ ऐसा
तो भी रेत तो भर ही लेगी
मुझे अपने अंक में...

मेरे जाने पर
तुम कोसना मत इस रेत को

पानी की प्यास से
कम ही मरता है आदमी
मृत्यु तो तब है
जब सूख जाये मेरी आँख से
तेरी याद का पानी.