Friday, March 12, 2010

गुमशुदा सिक्कों की याद


जब मैंने कम ही लिखे थे शब्द और ज़मीन पर इतना डामर फैला न था धूल के सहज मृदल स्पर्श से खिल उठता था मेरा बदन. उन दिनों पांच पैसे में आ जाया करते थे पांच खट-मिटिये, मिठास से भर जाती थी जिंदगी.

जब मैंने कुछ और शब्द लिखे तब मंहगाई बढ़ गयी थी. पिताजी स्कूल के बाद सायकल की दुकान चलाते, सुबह के निकले रात हुए घर आते मगर फिर भी पांच और दस पैसों का चलन जाता रहा. ये ठीक उन दिनों की बात है जब सरकारें गिर जाया करती थी. नेता नैतिक आचरण की मांग करते थे. वक्तव्यों पर शर्मिंदा हुआ करते थे सदन. इस सब के बावजूद जो सबसे छोटा सिक्का बचा था, वह मुझे हर तीन दिन बाद मिला करता मगर फिर भी पच्चीस पैसों में बहुत कुछ आता था।

जैसे जैसे मेरे शब्द बढ़ते गए लुप्त होते गए खनकदार छोटे छोटे सिक्के. जब आठ आने लेने से इंकार करने लगे थे दूकानदार, उन दिनों मेरे पिता थे इस दुनिया में. उन्होंने मेरी माँ से कहा था कि इसको दस रूपये दिया करो आज कल दो रुपये में आता ही क्या है ? मेरी किताबें जब अधिक बड़ी हो गयी और शब्दों का संसार भी, तब अखबार में था मौद्रिक नीति की फिर से समीक्षा होगी. साथ के कॉलम में रेल से कटे इंसान की ख़बर भी.

उन गुमशुदा सिक्कों की याद में एक अँधेरे जैसा अवसाद घेरता जाता है मुझे. मेरा माथा भर जाता है पसीने से, मुझे अपने ही घर में डर लगता है. अपनी मुट्ठी के पसीने में पांच पैसे दबाये फिर से चलना है मुझे... और सच कहना पापा वह पांच पैसे का चौकोर सिक्का कितना सुंदर दीखता था ?