Saturday, May 15, 2010

सखी, बातें कितनी सच्ची होती हैं





















आईना

पानी उतर रहा है तुम्हारे शीशे से
और साफ़ नहीं दिखाई देती है सूरत

नहीं
ये आईना तो
बच्चों के बाप की तरह गोलमोल बात करता है

चिट्ठी
दीवार से लगे बिजली के तार के पीछे
ये किसकी चिट्ठी खोंस रखी है तुमने

पता नहीं
पर दिखती कितनी सुन्दर है


सुविधा
घर तो बड़ा साफ़ सुथरा है

हाँ
सब आराम है, चार लोगों के लिए
पांच चारपाई और दो मोबाईल है
बस एक शौचालय नहीं है


बातचीत
बहन जो मैंने यूं ही पूछा
तुमने बुरा तो नहीं माना ?

बुरा क्यों ?
सुख के दो पल बीते
दुःख की दो घड़ियाँ भूली

चलूँ ?
हां जरूर, तुमको भी तो काम होगा...

जब घर के आँगन में बुहारी न लगी हों
तब मुझे जोर से देना आवाज़
कि मेरी सांस रुक न गयी हों.

[Image courtesy : http://listverse.com/]

13 comments:

  1. सीधी- सच्ची, आसपास घटती क्षणिकाएं.... :-)

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  2. जब घर के आँगन में बुहारी न लगी हों

    धन्‍यवाद

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  3. बिंदास क्या बात है ...बहुत बढ़िया

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  4. अद्भुत,सीधी-सादी और सरल...."

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  5. बातचीत
    बहन जो मैंने यूं ही पूछा
    तुमने बुरा तो नहीं माना ?

    बुरा क्यों ?
    सुख के दो पल बीते
    दुःख की दो घड़ियाँ भूली
    mujhe ye panktiyan achchi lagi...

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  6. This comment has been removed by the author.

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  7. बहुत अच्छी..
    पहली कविता कुछ पारंपरिक सुर मे शुरू होती है..मगर फिर एकदम से साँप जैसी गुलाटी मार कर पाठक को हतप्रभ कर देती है..यही चमत्कार दूसरी क्षणिका मे इसी कयासपने के बारे मे सटीक बैठता है..वहीं तीसरी वाली हमारे समाज के बेढंगे और अतार्किक विकास पर व्यंग्यपूर्ण दृष्टि से ताने कसती है..और इसी व्यंग्य शैली को कायम रखते हुए चौथी वाली किसी रिश्ते के सबसे जरूरी शर्त ’संवाद’ की जरूरत और महत्व रेखांकित करती है..मगर अंतिम क्षणिका एक पक चुके रिश्ते के प्रारब्ध को पूरी गंभीरता से परख लेती है..सच है..हमारा अस्तित्व तभी तक है जब तक यह दूसरों की नजर मे है...
    लम्बे वक्त के बाद मगर सुखद आमद रही...

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  8. आस पास घाटे समय चक्र का अति सुन्दर चित्रण

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  9. बहुत शानदार रचना है

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  10. बेहतरीन...सभी!!!

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  11. आस-पास के घटना क्रम को कलाम में बंद कर लिया है बहुत ही अनोखे अंदाज़ में ... बहुत खूब ...

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  12. बहोत ही अच्छी और सरल हैं ,वाह ...............

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