Sunday, July 25, 2010

नग्न होना ही एक सामान्य अवस्था है

नग्नता, महिलाएं और समाज, ये उलझी हुई बहस हमारे उपलब्ध संचित ज्ञान जितनी ही पुरानी है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाला जुमला हमारे लिए बेहद रूमानी है, इसका अर्थ "कुछ भी व्यक्त करने के" अपने अधिकार से जोड़ा जाता है. नग्न देह और समाज विषयक बहस में अपनी अपरीक्षित समझ से एकत्र और कम सुने अनदेखे अनुभवों के आधार पर स्थापनाएं कर इस विषय को और उलझाया जाता रहा है. हम में से अधिकतर लोग यह नहीं जानते कि मनुष्य के इस विरले जीवन की उत्पत्ति से लेकर आज तक नग्न होना एक सामान्य अवस्था है. अपनी इस देह को ढकने के ज्ञान का आयात मध्ययुगीन ग्रीक- रोमन सभ्यता से हुआ है. हमें जिस नयी सदी की प्रतीक्षा थी. उसके जाने के एक दशक बाद भी विश्व में अभी ऐसे समुदाय बचे हुए हैं जो अभी तक वस्त्र ज्ञान से अपरिचित हैं. वे पूर्ण नग्न अवस्था में अपने लघुतम समाज के साथ जी रहे हैं.

रोरैमा के उत्तरी ब्राजीलियन क्षेत्राधिकार में सोने और हीरे की खोज के दौरान पूर्ण नग्न अवस्था में रह रहे यूनोममिस समुदाय को हाल ही में फिर से चिन्हित किया गया है. यह पचास लोगों की सभ्यता है. जो अपने शरीर को मात्र फलों और पत्तों से ढकने का न्यूनतम प्रसास करती है. उनके मन में नग्न देह से शायद ही कोई ऐसा भाव संचरित होगा जो किसी रूप में अश्लीलता का बोध कराता हो. उनकी जीवन शैली आदिम से बेहतर है. वे भले ही बाहरी तकनीक की दुनिया से कटे हुए हैं मगर उनके बोध के अनुसार उनकी संभ्यता अल्टीमेट है, जैसा दावा हम हमारी इस सभ्यता के बारे में करते हैं. रियो ब्रान्सो का टुपरी आदिवासी समुदाय भी इसी तरह से आज भी जी रहा है. वह कपास के उत्पादन की तकनीक जानता है. परिवार की अवधारणा से परिचित है. एक स्त्री वहां माँ, बहन और बेटी के रूप में है मगर नग्नता से किसी भी तरह का विकार जन्म नहीं ले रहा.

प्राचीन ग्रीक सभ्यता के भारत के प्रति आकर्षण के विभिन्न कारणों में एक महत्वपूर्ण कारक ये माना जाता है कि हमारे यहाँ दार्शनिको का एक व्यापक समूह नग्न अवस्था में जीवन यापन करता था. इस समूह को जिम्नोसोफिस्ट कहा गया. इनकी उपस्थिति और क्रियाकलापों के अध्ययन हेतु सिकंदर महान ने अतुलनीय रूचि ली थी और अपनी भारत यात्रा का कारण ही इस नग्न दार्शनिक समूह से विमर्श करना बताया था. आज भी नागा बाबाओं के दल सहज स्वीकार्य है. वे हमारी पुरातन जीवन शैली का हिस्सा हैं. सिकंदर सम्भवतया इन्हीं के किसी गुरु से मिला होगा. नग्न होना या देह का स्थान विशेष से प्रकट होना तब तक श्लील और अश्लील के बोध से मुक्त ही माना जायेगा जब तक कि आपकी सोच पूर्वाग्रहों में सिमटी हुई ना हों.

एक महिला अथवा पुरुष देह को लेकर जितनी कुंठाएं और वर्जनाएं आज के समाज में है, उतनी आदिम और नासमझ कहे जाने वाले समुदायों में कभी नहीं रही. हमें ज्यादा बाहर और दूर देशों में झांकने की भी आवश्यकता ना होगी. पांच हज़ार साल के इतिहास वाले हमारे अपने देश के पहले के दो हज़ार साल स्त्री देह के बेहतरीन चित्रण के रहे हैं. देवी देवताओं के अस्तित्व की समझ, मनुष्य के अवतरण अथवा विकास के बहुत बाद की बात है. ये भी सहज स्वीकार्य होना चाहिए कि हमने एक सुंदर स्त्री को देख कर ही देवी के किसी दिव्य रूप की कल्पना की होगी और उसे ठीक उस स्त्री के जैसा चित्रित किया होगा. जो कालांतर में मनुष्य की कल्पनाओं के साथ अलौकिक स्वरूप में बदली गई होगी.

वर्तमान के पुरुष की दमित इच्छाओं से उपजी कुंठित सोच से आज स्त्री देह को उपभोग की वस्तु मान लिया गयाहै. एक स्त्री का पूर्ण अथवा आंशिक रूप से नग्न होने का प्रभाव उसके कार्य की प्रवृति के अनुरूप ना माना जा कर आवश्यक रूप से अमर्यादित आचरण की श्रेणी में गिना जाता है. यह आदिम समाज के सौदर्य बोध मन की निर्मलता के विपरीत हमारी सोच के पतन का प्रदर्शन है. इन दिनों कला और कलाकार के काम को सेंसर किये जाने के उद्देश्यों से प्रेरित एक निर्जीव विषय को फिर से जगाये जाने का प्रयास किया जा रहा है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपने धर्म और चरित्र की रक्षा के समर्थन के नाम पर विषवमन करने वाले ये भूल रहे हैं कि कला और कलाकार को भी यही हक प्राप्त है.

धर्म का आरोहण किसी महिला के बिना या उसकी उपेक्षा कर के किस तरह होगा, ये समझ से परे की बात है. आधुनिक भारत के पास अद्वितीय मूर्ति कला और चित्रण के जो नायब उपहार हैं वे सभी मध्ययुगीन समय के हैं. धर्म और संस्कृति के नाम पर दुहाई देने वालों को अभी भी गंभीर अध्ययन की आवश्यकता है. हमारी पुरातात्विक और संरक्षित संपदा से जिस महान सभ्यता का बोध शेष है. उसमे नारी कभी इतनी दमित नहीं रही. हजारों किलों, मंदिरों, सार्वजनिक स्थानों और बागीचों के प्रवेश द्वार पर नारी के अविस्मर्णीय सौन्दर्य की कृतियाँ उपस्थित है. उनकी नग्न देह के प्रति उस समय का शासन और समाज जितना सहिष्णु और कलाबोधी था उसका शतांश भी हमारी आज की सम्भ्यता में नहीं बचा है. आज सिर्फ देह को ढके जाने के फरमान है अपने मन को निर्मल किये जाने के नहीं.

खजुराहो के मंदिर समूह को मंदिर ही कहते हैं. वह स्थान जहाँ हम एक ईश्वरीय अलौकिक दिव्य प्रकाशपुंज से प्रार्थना करते हैं. वहां की मूर्ति कला, अजंता एलोरा की गुफाएं और कोणार्क के मंदिरों का सौन्दर्य सामाजिक था. जिसकी रचना प्रजा के अनुरंजन और शासक की आनंदमयी स्वीकृति के बिना संभव नहीं अर्थात महिला की देह का उन्मुक्त और इरोटिक प्रदर्शन पवित्र स्थलों पर भी जीवन के सम्पूर्ण आरोहण का अनिवार्य और सम्माननीय अंग था. आज टॉप लेस वूमन का एक छाया चित्र विवाद का कारण बनाया जाता है. यह किस सभ्यता का प्रतीक है सोचना मुश्किल है. नग्नता के फ्रेम में उस तस्वीर को फिट करने से पूर्व उस महिला के टॉप लेस होने के कारणों की चर्चा अनिवार्य होनी चाहिए मगर संकुचित समाज मनमानी स्थापनाएं कर दंड देना चाहता है ताकि स्त्री देह को किसी जींस की तरह उपयोग में लाया जा सके.

यह आलेख प्रिंट माध्यम में प्रकाशित हो चुका है.

6 comments:

  1. अपना अपना नजरिया है,जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी ...अच्छी विवेचनात्मक प्रस्तुती ..

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  2. धर्म और संस्कृति के नाम पर दुहाई देने वालों को अभी भी गंभीर अध्ययन की आवश्यकता है. nice

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  3. नग्न होना या देह का स्थान विशेष से प्रकट होना तब तक श्लील और अश्लील के बोध से मुक्त ही माना जायेगा जब तक कि आपकी सोच पूर्वाग्रहों में सिमटी हुई ना हों.

    हजारों किलों, मंदिरों, सार्वजनिक स्थानों और बागीचों के प्रवेश द्वार पर नारी के अविस्मर्णीय सौन्दर्य की कृतियाँ उपस्थित है. उनकी नग्न देह के प्रति उस समय का शासन और समाज जितना सहिष्णु और कलाबोधी था उसका शतांश भी हमारी आज की सम्भ्यता में नहीं बचा है. आज सिर्फ देह को ढके जाने के फरमान है अपने मन को निर्मल किये जाने के नहीं.

    अच्छी जानकारी के लिए शुक्रिया और उपरोक्त पंग्क्तियों से सहमत.

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  4. यहाँ "सामान्य" की अपेक्षा "नैसर्गिक" शब्द अधिक उपयुक्त लग रहा है और नैसर्गिक का सहज, स्वीकार्य या व्यावहारिक होना ज़रूरी नहीं है.

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  5. विकार नग्नता से नही मानसिकता से पनपते हैं..और मानसिकता वस्त्रों तले नही छुपती...मिथॉलोजी मे भी विष्णु के चौबीस अवतारों मे दत्तात्रेय का अवतार है जिन्हे अवधूत की उपमा दी गयी है..वहीं शिव, काली और छिन्नमस्ता आदि के प्रतीक दिगम्बरत्व की इसी पुरातन ग्राह्यता के प्रतीक लगते हैं..
    नजरों का दोष ही वस्त्रों के नैतिकबोध को पारिभाषित करने को विवश करता है..मगर उसके लिये कपड़ो का होना काफ़ी नही..
    ..महत्वपूर्ण लेख..

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  6. आभाजी आपका ब्लॉग और लेखन मुझे बहोत अच्छा लगा. ऐसेही लिखते रहे

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