Thursday, February 4, 2010

तेरी याद जैसे रेत



धूल सी उड़ती है ख्वाबों में
धुंधले चेहरे
और ज्यादा खो जाते हैं
सूखे हुए इस दरिया के पार

स्मृतियों की पदचाप
सृष्टि के विनाश को उठते
वर्तुल सा भ्रम जगाती है

कि आस पास ही है
प्यास का फंदा

फिर भी सदियों से
कुओं के बचे हुए हैं कुछ पाट
और कुछ टूटी फूटी इबारतें
जिंदगी के लिए.

रेत पर पसरी
नाउम्मीद ख्वाहिशें विचरती है
मृग सी अमिट प्यास लिए

अगर मैं मरूंगी
अपने प्रियजनों के सम्मुख
तो देह सदगति पायेगी

न भी हुआ ऐसा
तो भी रेत तो भर ही लेगी
मुझे अपने अंक में...

मेरे जाने पर
तुम कोसना मत इस रेत को

पानी की प्यास से
कम ही मरता है आदमी
मृत्यु तो तब है
जब सूख जाये मेरी आँख से
तेरी याद का पानी.