Saturday, October 24, 2009

ढलान से उतरते हुए




कुछ महीने बड़े ही तरतीब से बीते जैसे फूलों को खिलते हुए देखने के लिए कोई जागा करे. मैंने भी कुछ ही क्षणों को मुरझाते हुए देखा बाकी तो व्यस्तताओं की भेंट चढ़ गए. इधर मौसम में थोड़ी ठंडक आई तो बीते कई सालों के टूटे फूटे चहरे याद आए।


एक संक्षिप्त सी कविता



तुम्हारी हथेलियों की गंध
जो मेरी रूह में समाई थी
अब भी फैली होगी हवा में कहीं.
बाहों का पसीना
महकता होगा सरसों के खेत सा
आवाज़ के कुछ टुकड़े
बिखरे होंगे सूखे पत्तों में,
जाने क्यों सोचती हूँ ऐसा
और क्यों बची रहती है उम्मीदें
बाद मुद्दत के, कहीं न कहीं.
मैं जब भी उतरती हूँ
सुंदर, ऊँचे पेड़ों से भरी वादी की ढ़लान
अपने कांधों पर पाती हूँ
एक बेजान अहसास,
गोया पेड़ से पत्तों की जगह
दम तोड़ चुकी इच्छाएं झरती हों.

8 comments:

  1. गोया पेड़ से पत्तों की जगह
    दम तोड़ चुकी इच्छाएं झरती हों.
    एहसास की असहायता और व्यस्तताओं की नाकेबन्दी के बीच बहुत सुन्दर रचना

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  2. तुम्हारी हथेलियों की गंध
    जो मेरी रूह में समाई थी
    अब भी फैली होगी हवा में कहीं.....khusboo si koee aye to lagta hai ki tum ho....anjan aznabi rasto ki pic jo apne lgayee hai bahut khoobsurat hai.....

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  3. तुम्हारी हथेलियों की गंध
    जो मेरी रूह में समाई थी
    अब भी फैली होगी हवा में कहीं.
    बाहों का पसीना
    महकता होगा सरसों के खेत सा

    बहुत दूर तक ले गयी आपकी यह खुश्बू .......खुबसूरत!

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  4. पढ़ते हुए मैं उस एहसास को अन्दर तक महसूस कर रहा हूँ !!

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  5. गोया पेड़ से पत्तों की जगह
    दम तोड़ चुकी इच्छाएं झरती हों.

    बहुत सुन्दर लिखा है।
    आभार!

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  6. संक्षिप्त में भी काव्य का पूरा रूप सामने आ गया है.सब के बीच एक रंग नैराश्य का भी.

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  7. तुम्हारी हथेलियों की गंध
    जो मेरी रूह में समाई थी
    अब भी फैली होगी हवा में कहीं.
    बहुत सुन्दर. बडी आसानी से अपनी बात कह दी..

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  8. गोया पेड़ से पत्तों की जगह
    दम तोड़ चुकी इच्छाएं झरती हों.

    कितना सुंदर सच!

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