Sunday, June 21, 2009

दो कवितायें बिना शीर्षक के



एक :

नन्ही परियां
उड़ती है तितलियों सी
किसी के हाथ ना आने को,
लड़के भरते हैं कुलांचें
जंगल के ओर छोर को
नापने की जिद में।
झुरमुट की आड़ में युवा
थामता है हाथ,
टटोलता है प्रेम का घनत्व।
युवती सूंघती हैं साँसें
स्त्रीखोर की
मामूली पहचान को परखने के लिए।
बूढे कोसते हैं समय को
और लौट लौट आते हैं
पार्क की उसी पुरानी बेंच पर
जिसका एक पाया,
उन्होंने कभी देखा ही न था।


दो :

बादल निगल जाते हैं जब
आकाश की ज्यामितीय रचना को
सितारों को ढक लेती है
भूरे रंग की बेहया जिद्दी धूल
तब भी दिखाई देती है
झुर्रियों वाली बुढ़िया
आदिम युगों से आज तक
कातती हुई समय का सूत।




20 comments:

  1. दोनों कवितायेँ बार बार खुद के पास लाती है. भावों के विभिन्न स्तरों को पहचानना इन कविताओं के ज़रिये संभव हो पाता है.शीर्षक कविता की आवश्यक शर्त नहीं.

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  2. bahut hi sundar rachana jisame shbda our bhaw ek anutha ehsas paida karate hai

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  3. मै तो इन्हे कविता नही चित्र कहून्गा. प्रभावी रचना शीर्षक की मोहताज़ कब रही है.
    बहुत खूबसूरत

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  4. दोनों कवितायें सम्पूर्ण और सशक्त बिना शीर्षक के भी ....

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  5. शब्दातीत रचनाएं. बधाई, साधुवाद.

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  6. नीरा जी से सहमत हूँ उनके शब्दों को मेरा समर्थन .

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  7. Sundar rachnaayei....

    बूढे कोसते हैं समय को
    और लौट लौट आते हैं
    पार्क की उसी पुरानी बेंच पर
    जिसका एक पाया,
    उन्होंने कभी देखा ही न था।

    waise is kavita ka shirshak main to "park" kahoonga !!


    झुर्रियों वाली बुढ़िया
    आदिम युगों से आज तक
    कातती हुई समय का सूत।
    "...mujhko yakeen hai sach kehti thi jo bhi ammi kehti thi...
    ...jab mere bachpan ke din the chaand mein pariyaan rehti thi ..."

    ...pari budhi ho gayi !!
    ...samaya ka soot katte hue shayad !!
    ...samay ki nazar lag gayi shayad !!

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  8. shabdon aur visheshanon ka bahut hi sundar upayog.Vishesh arthon ko dharan karti ye kavitayein bahut achchhi lagin.
    Navnit Nirav

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  9. मनुष्य और प्रकृति की प्रकृति का सुन्दर चित्रण.

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  10. पहली कविता जैसे एक लम्हे में समय के कई फलांग एक साथ पकड़ती है.....अद्भुत ..
    दूसरी कविता

    'बेहया जिद्दी धूल
    तब भी दिखाई देती है
    झुर्रियों वाली बुढ़िया
    आदिम युगों से आज तक
    कातती हुई समय का सूत।'

    अपने आप में एक विस्तार है समय का....आपकी कविता सिर्फ कविता लिखने की खाना पूर्ति भर नहीं है...इसमें समाज के कई आइने जमा होते है....

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  11. मुझे हैरत है... राजकुमारी... यह बशीरत, यह हिंदी, ये शब्दों का सही प्रयोग... दाद देता हूँ, ... वाह..

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  12. झुरमुट की आड़ में युवा
    थामता है हाथ,
    टटोलता है प्रेम का घनत्व।
    युवती सूंघती हैं साँसें
    स्त्रीखोर की
    मामूली पहचान को परखने के लिए।

    wah ji wah bahut sudar !
    ye to insaan ki chemistry ko samjhaane ki paribhaashaa hain. antarman ke bhaavon kya khoob shabdon main bhandhaa hai !!!
    saadhuvaad .

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  13. बूढे कोसते हैं समय को
    और लौट लौट आते हैं
    पार्क की उसी पुरानी बेंच पर
    जिसका एक पाया,
    उन्होंने कभी देखा ही न था।
    behtreen abhivykti.
    badhai

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  14. बूढे कोसते हैं समय को
    और लौट लौट आते हैं
    पार्क की उसी पुरानी बेंच पर
    जिसका एक पाया,
    उन्होंने कभी देखा ही न था।
    gahree panktiyan

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  15. एस्केलेटर के बाद और दो सुन्दर रचनाएं...आनंद आ गया..
    आपकी कवितायेँ अजंता के चित्रों से कमतर नहीं है
    बधाई !
    प्रकाश

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  16. बेहद सशक्त, बेहतरीन लेखन...और बहुत गहराई लिए हुए ....बहुत अच्छी लगीं दोनों

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  17. दोनों ही ख्याल बहुत उम्दा है..

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  18. बहुत सुंदर रचनाएं. दोनो. वाह.... बधाई..

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  19. बूढे कोसते हैं समय को
    और लौट लौट आते हैं
    पार्क की उसी पुरानी बेंच पर
    जिसका एक पाया,
    उन्होंने कभी देखा ही न था।...kmaal likha apne dil ko chhu liya.....

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