जोहांसबर्ग से लन्दन के बीच की बी ऐ की एक फ्लाईट के दौरान एक श्वेत महिला यात्री ने परिचारिका ने शिकायत की "आपने सीट देते समय वास्तव में कुछ भी ध्यान नहीं दिया है. मैं ऐसी सीट पर यात्रा नहीं कर सकता जिसके पास वाली सीट पर कोई काला आदमी बैठा हो. आप अभी मुझे स्थानापन्न के तौर पर दूसरी सीट दें." परिचारिका ने बताया कि इस यात्रा की लगभग सभी सीटें भरी हुई है फिर भी आप शांत रहिये मैं कप्तान से बात करती हूँ. परिचारिका ने लौट कर कहा "हमारे पास इकोनोमी क्लास में कोई सीट उपलब्ध नहीं है. इकोनोमी क्लास में यात्रा करने वालों को हम बिजनेस क्लास या फर्स्ट क्लास में शिफ्ट नहीं कर सकते हैं फिर भी हम इस भद्दे और बेहूदा विषय पर कोई विवाद नहीं चाहते हैं और हमारे पास फर्स्ट क्लास में एक सीट उपलब्ध है." परिचारिका ने बिना रुके काले यात्री से कहा "कृपया आप अपना लगेज़ अपने साथ ले लीजिये, फर्स्ट क्लास में एक सीट आपका इंतजार कर रही है." विमान यात्री चकित थे. उन्होंने इस निर्णय पर खड़े होकर तालियाँ बजाई.
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रंग रूप, देह के आकार प्रकार, स्थान, भाषा, बोली, पहनावे, खान-पान और रहन-सहन को लेकर भेद करते हुए व्यवहार किया जाना, नस्ल भेद कहलाता है. सर्वाधिक चर्चित रहा रंग भेद महात्मा गाँधी से लेकर नेल्सन मंडेला के प्रयासों से विचारणीय हुआ और आधुनिक दुनिया में इसके ख़िलाफ़ समझ को विकसित करने मदद मिली. ये कितने अफ़सोस की बात है कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के ख़िलाफ़ उसकी देह यष्टि को लेकर भेद बरता जाये लेकिन अब ये सिर्फ अफ़सोस मात्र नहीं है. दुनिया के उपेक्षित तबकों और उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे संगठनों का कहना है कि ये नियो फासिज़्म का रूप लेता जा रहा है.
नियो फासिज़्म यानि अपने समूह के अतिरिक्त अन्य जिन लोगों से आपकी होड़ है या फिर सामना होता है. उनकी जीवन शैली पर तीखे उपहास भरे कमेन्ट करना और उन्हें अमर्यादित भाषा के प्रयोग से उकसाना. किसी के निचले मोटे होठ को देख कर उसे हब्शी कहना एक साम्प्रदायिक टिप्पणी है. ये मनुष्य मात्र के सामान्यतम अधिकार का हनन है. रंग को लेकर अभिजात्य वर्ग में होने का गुमान वास्तव में एक दमित कुंठा है कि किस तरह उससे गहरे रंग का व्यक्ति उसके बराबर या उससे उच्च स्तर का जीवन जी सकता है.
भौगोलिक, धार्मिक और गुणसूत्रों के आधार पर मानव के साथ भेद किये जाने के उदहारण बड़े आदिम है किन्तु एमनेस्टी इंटर नॅशनल ने यूरोप और मध्य एशिया रिपोर्ट 2010 में मानवाधिकारों के हनन पर चिंता जताई है.रिपोर्ट का कहना है कि इन सालों में बदलती हुई आर्थिक स्थितियों के चलते हुए इमिग्रेशन बढ़ा है और इससे नस्लीय होड़ सम्बंधी नाम देकर हमले किये जा रहे हैं. यहाँ राष्ट्रीयता को लेकर भी भेद करते हुए प्रताड़नाएं बढ़ी हैं.
पूँजी के केन्द्रीयकरण के कारण विश्व के अधिकतर संपन्न देशों पर कामगारों का दवाब बढ़ता रहा है. फलस्वरूप वहां देश और धर्म के नाम पर रिहाइशें होने लगी हैं. अब स्थितियां बिगड़ती हुए उस स्तर तक आ चुकी है जहाँ विश्व ने अगर एकजुट होकर प्रयास नहीं किया तो लगभग सभी देशों के गृह युद्ध में घिर जाने की आशंकाएं हैं. एक ही देश में अलग अलग समूहों द्वारा आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए किये जा रहे नस्लीय हमले इतने बढ़ गये हैं कि उनको सामाजिक स्वीकृति मिलने लगी है. यह वाकई चिंतनीय है.
पूर्वाग्रहों के आधार पर बर्बर व्यवहार करने के मामले में अमेरिका से भी अधिक भयावह हालात आस्ट्रेलिया में रहे हैं. वहां पिछली एक सदी के इतिहास में रंग और नस्ल भेद के जरिये व्यापक अत्याचार किये गये हैं. राजनितिक पार्टियाँ भी उभरती रहीं, जो कि सफ़ेद और काले के नाम चुनाव लड़ रही हैं. किसी भी राष्ट्र के लिए इससे अधिक चिंताजनक बात क्या हो सकती है कि उसके देश में चुनाव, रंग के आधार पर होने लगे. इस तरह के उभार पर विश्व ने एकजुट होकर आस्ट्रेलिया को खरी खोटी भी सुनाई थी.
वर्ष दो हज़ार में सिडनी में आयोजित ओलम्पिक, खेलों के इतिहास में नस्लभेदी बर्ताव और टिप्पणियों के सर्वाधिक चर्चित रहे हैं. यह खेल आयोजन का सबसे बुरा अनुभव था जहाँ खिलाडियों को उनकी प्रांतीयता, रंग रूप और सभ्यता के कारण वर्गीय फिकरों का सामना करना पड़ा था. आस्ट्रेलिया में पिछले तीन साल से भारतीयों पर लगातार हमले हुए हैं. सरकार और आस्ट्रेलियन समाज इस पर किसी भी तरह का स्पष्टीकरण देने में असमर्थ रहा है. ऐसा अक्सर होता था कि विकसित देश अपने नागरिकों को पिछड़े देशों की लचर कानून व्यवस्था के कारण अपनी यात्राएं टालने को कहते आये हैं किन्तु भारत सरकार ने भी अपने यात्रियों से आस्ट्रेलिया की यात्राएँ स्थगित करने को कहना पड़ा. ये आस्ट्रेलिया जैसे देश के लिए शर्म की बात है.
अमेरिका पर हुआ अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला भी नस्ल भेद का उदहारण है लेकिन जो अमेरिका आज हमें दिखाई देता है वह वास्तविक अमेरिकियों का प्रतिनिधि नहीं है. अफ्रीका के रंग भेद से भी बदतर व्यवहार मूल अमेरिकियों के साथ हुआ है. इतिहास इस बात का गवाह है कि वहां के मूल निवासियों को जंगलों और मासूस हिरणों की तहर काट डाला गया था. औपनिवेशिक दौर में जो नस्ल आधारित समाज रहा है, आज उसका दंश अमेरिका को झेलना पड़ रहा है.
नस्ल भेद आधारित शासन के विरुद्ध लम्बी लड़ाई का ताजा उदहारण भले ही अफ्रीका हो लेकिन पिछले कुछ दशकों में गुपचुप तरीके से सम्प्रदायवाद हर राष्ट्र में स्थान बना चुका है. मध्य एशिया, यूरोप, आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका और अरेबिक देशों में घृणा का स्तर बढ़ता ही जा रहा है. इसके मूल कारणों में एक है वैश्विक आर्थिक मंदी किन्तु असमर्थ सरकारें निरंतर अपनी असफलताओं को इसी तरह के विषयों पर थोपना चाहती है. असली तकलीफ को एक भयावह विचार के माथे पर मढ़ना ही वास्तव में नियो फासिज़्म का पोषण है.
खेलों में होड़ और हार से उपजी कुंठा में व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खोकर अमानवीय टिप्पणी कर सकता है लेकिन जब ऐसी टिप्पणियाँ रणनीति का हिस्सा हो जाये तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. भद्र पुरुषं का खेल कहा जाने वाला क्रिकेट नस्लीय व्यवहार का एक बड़ा उदहारण है. इसका प्रमुख कारण है कि इस खेल को अधिकतर वे देश खेलते हैं जो कभी ब्रिटेन के उपनिवेश हुआ करते थे.
दिल्ली कॉमन वेल्थ गेम्स में हुई भद्दी टिप्पणियां वास्तव में घृणा की उस लहर की ओर इशारा कर रही है जो दुनिया को अपने काबू में करती जा रही है. न्यूजीलेंड के प्रमुख चेनल की वेबसाईट वीडियो एक्स्ट्राज में पाल हेनरी लाफ्स अबाउट शीला दीक्षित, तीरंदाजी के प्रमुख कोच लिम्बा राम के साथ पराजित अंग्रेज दल के मुखियाओं का दुर्व्यवहार और दक्षिण अफ़्रीकी तैराक रोला शूमैन का आस्ट्रेलिया के पत्रकार को दिया गया बेहूदा साक्षात्कार, नियो फासिज़्म संक्रमण के चपेट में आये लोगों को चिन्हित करता है.