Tuesday, March 31, 2009

आईने



कूड़े के ढेर में डूबते
सूरज को तलाशती है
गीली उंगलियाँ
उन्होंने ने सुना है
आज आईने बोलेंगे सच

आज ही हो सकती है
शिनाख्त परेड हत्यारों की
जिन्होंने सफाई से किए थे क़त्ल
कई सारे रंगीन ख्वाब

देह उन हत्याओं को
ब्लाईंड बता कर चुप है
जबकि दिल को है उम्मीद
राज़ खोले जायेंगे
फैसले बोले जायेंगे

अगर तुम नही हो
उन हत्यारों में से एक
तो सूरज छुपने ना दो
आज आईने बोलेंगे सच




Friday, March 27, 2009

तुम्हारा ख़याल



बहुत सुंदर लगती है
वेदों की ऋचाएं
कुरान की आयतें
बेवजह तुम्हारा ख़याल
काफ़िर बना देता है मुझे ॥

Thursday, March 26, 2009

तुम्हारा रंग

पिछले मोड़ के आखिरी लेम्प पोस्ट पर चिपकी तस्वीर में लड़की कितनी जगह से फटी थी अब भी याद है तुम्हें जबकि मैं कई दिनों से एक ही रंग के फूल तम्हारे सिरहाने रखे गुलदस्ते से बदलती रही हूँ भूल गए तुम। कितने अजब समय में जी रहे है हम की विस्मृतियों के पतझड़ भी लौट कर नहीं आते। फव्वारे पर पानी में किलोल करते पांखियों की ध्वनि सुनाई नहीं देती तुम्हें, जबकि कार में बैठी लड़की को बाईक वाला लड़का क्या कह गया तुम्हारे दिमाग में गूंजता रहता है। जब मैं कहती हूँ कि कितने अदब से झुका था तुम्हारा मित्र मुझे साथ देख कर और तुम्हें सिर्फ़ इतना याद रहा कि उसके बगल से निकली लाल कुरते वाली नवयोवना ने कोल्हापुरी चप्पलें पहनी थी। खिड़की के परदे अब मटमैले हो चलें है आओ इस बार कि तनख्वाह पर बदल ले तो तुम्हें मटमैली धूल के भीतर से घोड़े पर सवार दोनों हाथ लहराता आमिर खान दिखाई पड़ता है और उसमे भी तुम भीड़ में कई रंग तलाश लेते हो जो आज कल की लड़कियां पहन कर दूसरे लोक की हो जाया करती है। सच तो ये है कि जब पहली बार हम मिले थे तो आसमान पीला था, पानी लाल रंग का, पेड़ पौधे नीले हो गए थे इसलिए सब रंग ऐसे खो गए हैं दूसरे रंगों में जैसे तुम मेरे साथ होते हुए भी खो जाया करते हो दूसरों में। एक दिन मैं उसी लेम्प पोस्ट से पीछे मुङ कर जब भीड़ हो जाउंगी तब दिखाई दूंगी तुम्हें पर तब तक मेरे रंग से तुम्हारा रंग अलग हो चुका होगा।

Wednesday, March 25, 2009

दिल की बातें करो।

मेरे लिए दिन अब भी वैसे ही हैं जैसे बेकारी और बेजारी के दिनों में हुआ करते थे फर्क जो दिखाई पड़ता है वह ठीक किसी यांत्रिक कार्य सा है, आधुनिक यन्त्र का कोई पुर्जा जिस तरह अपना दौलन पूर्ण कर लौट आता है अपनी जगह ठीक वैसी ही हो गई हूँ मैंआज शाम को बिताने की चिंता नहीं रही पर, उन दिनों सर ऑर्थर कानन डॉयल का पात्र शरलौक होल्म्स जिस तरह निराशा जनक परिस्थितियों में कोई सूत्र ढूँढ लाता था उसी तरह बेकारी और बेजारी से मुक्त होने के कई सूत्र मैं भी खोज लिया करती थी, वे पढ़ने के दिन थे, वे आनंद और मस्ती के दिन थे उन दिनों महामंदी नहीं थी फ़िर भी रेस्तरा सस्ते हुआ करते थे, साल में दो बार आने वाले सबसे छोटे और सबसे बड़े दिनों को हम दोस्तों के साथ अपनी इच्छा से नापते थे, आपके कहने से क्या छोटा और क्या बड़ा ?
कुछ लिखने का ये सिलसिला मैंने कल ही आरम्भ किया है इसका अभिप्राय यह नहीं है की मैं भूल गई थी , यह भी नहीं कि इन दिनों मेरे पास कोई काम नहीं हैंमकसद है उन बीते हुए लम्हों में तराशे गए वजूद के धुंधला गए हिस्सों को फ़िर से रोशनी दिखानामीर तकी मीर से शाहिद मीर तक की परम्परा के शायरों से कोई मुहब्बत नहीं है ना ही रांगेय राघव की तरह कोई संस्मरण परक विविध आयामी लेखन करने का इरादा है, मुंशी जी के गाँव और निर्मल वर्मा की लन्दन की गलियां अब अपना अस्तित्व खो चुकी है वे अपने समय को दर्ज करके चिरनिंद्रा में असीम आनंद से होंगे किंतु मैं अगर अपने लिए कोई एक श्रोता जुटा पाई तो शायद ये रूह बेचैन हो कर, अमृतपान कर रही दूसरी प्रतिष्ठित रूहों को कहीं खींच कर मयखाने ले जाए इससे बचने के लिए लिख रही हूँमैंने अपने ब्लॉग में एक फिराक की ग़ज़ल भी टांगी है जो कहती है, दिल की बातें करो

Tuesday, March 24, 2009

मौसम की धूप

कॉलेज से बाहर निकलते हुए देखती हूँ मौसम बदल रहा है, वे दिन नही रहे जो सख़्त जाड़े का अहसास कराते और स्कूटर पे स्कार्फ बाँधे दूरी को कम हो जाने की दुआ करते थे अब दस पंद्रह दिनों मे तपती धूप वाले दिन आएँगे पसीना और कर्फ़्यू एक साथ लगेंगे गलियों मे, वैसे कई मौसम कैसे गुजरते थे याद नहीं पर पता ऩही क्यों उसके जाने के बाद हर मौसम मे बड़ी तन्हाई सी लगती है. एक बार अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन की ग़ज़ल सुन रही थी सब मौसमों की खूबसूरत बात चल पड़ी, उसे गीत कहा जाए तो सही होगा क्योंकि ग़ज़ल के आवश्यक तत्व भिन्न होते हैं खैर मेरा मकसद था तुमको याद करना चाहे वह गीत हो या फिर ग़ज़ल. "मौसम आएँगे जाएँगे हम तुमको भूल ना पाएँगे..."
हाँ यही थी इसे कई बार सुना था फिर एक दिन उनसे मुलाकात का वह दिन भी याद आया जब वे एक प्रोग्राम मे आए थे तो मैने पूछा अहमद साहब कितने सुरीले हैं आप सब आपको हाथों हाथ लेते हैं लेकिन उनकी आँखों की चमक में कोई फ़र्क ना आया. वे शायद अपने संघर्ष के दिनों की याद में खो गये थे ठीक वैसे ही मैं अपने हसीन दिनों की दुनिया मे खो जाया करती हूँ. आज फिर तेरी याद ने करवट बदली तो तुमको ये सब लिख रही हूँ कि मौसम कोई भी हो सब अच्छे होते हैं बस तुम ही नहीं होते यही ग़म होता है. आज सोचती हूँ दुनिया बहुत आगे चली गयी है और मैं वहीं खड़ी हूँ... तुम्हारे इंतज़ार में... नहीं मेरा तो स्कूटर पंकचर है और कोई उसे दुकान तक पहुँचाने वाला नहीं दिख रहा, मित्रों वाकई मौसम की धूप बहुत तल्ख़ होती जा रही है.