मेरे लिए दिन अब भी वैसे ही हैं जैसे बेकारी और बेजारी के दिनों में हुआ करते थे फर्क जो दिखाई पड़ता है वह ठीक किसी यांत्रिक कार्य सा है, आधुनिक यन्त्र का कोई पुर्जा जिस तरह अपना दौलन पूर्ण कर लौट आता है अपनी जगह ठीक वैसी ही हो गई हूँ मैं। आज शाम को बिताने की चिंता नहीं रही पर, उन दिनों सर ऑर्थर कानन डॉयल का पात्र शरलौक होल्म्स जिस तरह निराशा जनक परिस्थितियों में कोई सूत्र ढूँढ लाता था उसी तरह बेकारी और बेजारी से मुक्त होने के कई सूत्र मैं भी खोज लिया करती थी, वे पढ़ने के दिन थे, वे आनंद और मस्ती के दिन थे उन दिनों महामंदी नहीं थी फ़िर भी रेस्तरा सस्ते हुआ करते थे, साल में दो बार आने वाले सबसे छोटे और सबसे बड़े दिनों को हम दोस्तों के साथ अपनी इच्छा से नापते थे, आपके कहने से क्या छोटा और क्या बड़ा ?
कुछ लिखने का ये सिलसिला मैंने कल ही आरम्भ किया है इसका अभिप्राय यह नहीं है की मैं भूल गई थी , यह भी नहीं कि इन दिनों मेरे पास कोई काम नहीं हैं। मकसद है उन बीते हुए लम्हों में तराशे गए वजूद के धुंधला गए हिस्सों को फ़िर से रोशनी दिखाना । मीर तकी मीर से शाहिद मीर तक की परम्परा के शायरों से कोई मुहब्बत नहीं है ना ही रांगेय राघव की तरह कोई संस्मरण परक विविध आयामी लेखन करने का इरादा है, मुंशी जी के गाँव और निर्मल वर्मा की लन्दन की गलियां अब अपना अस्तित्व खो चुकी है वे अपने समय को दर्ज करके चिरनिंद्रा में असीम आनंद से होंगे किंतु मैं अगर अपने लिए कोई एक श्रोता न जुटा पाई तो शायद ये रूह बेचैन हो कर, अमृतपान कर रही दूसरी प्रतिष्ठित रूहों को कहीं खींच कर मयखाने न ले जाए इससे बचने के लिए लिख रही हूँ। मैंने अपने ब्लॉग में एक फिराक की ग़ज़ल भी टांगी है जो कहती है, दिल की बातें करो।