Tuesday, March 24, 2009

मौसम की धूप

कॉलेज से बाहर निकलते हुए देखती हूँ मौसम बदल रहा है, वे दिन नही रहे जो सख़्त जाड़े का अहसास कराते और स्कूटर पे स्कार्फ बाँधे दूरी को कम हो जाने की दुआ करते थे अब दस पंद्रह दिनों मे तपती धूप वाले दिन आएँगे पसीना और कर्फ़्यू एक साथ लगेंगे गलियों मे, वैसे कई मौसम कैसे गुजरते थे याद नहीं पर पता ऩही क्यों उसके जाने के बाद हर मौसम मे बड़ी तन्हाई सी लगती है. एक बार अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन की ग़ज़ल सुन रही थी सब मौसमों की खूबसूरत बात चल पड़ी, उसे गीत कहा जाए तो सही होगा क्योंकि ग़ज़ल के आवश्यक तत्व भिन्न होते हैं खैर मेरा मकसद था तुमको याद करना चाहे वह गीत हो या फिर ग़ज़ल. "मौसम आएँगे जाएँगे हम तुमको भूल ना पाएँगे..."
हाँ यही थी इसे कई बार सुना था फिर एक दिन उनसे मुलाकात का वह दिन भी याद आया जब वे एक प्रोग्राम मे आए थे तो मैने पूछा अहमद साहब कितने सुरीले हैं आप सब आपको हाथों हाथ लेते हैं लेकिन उनकी आँखों की चमक में कोई फ़र्क ना आया. वे शायद अपने संघर्ष के दिनों की याद में खो गये थे ठीक वैसे ही मैं अपने हसीन दिनों की दुनिया मे खो जाया करती हूँ. आज फिर तेरी याद ने करवट बदली तो तुमको ये सब लिख रही हूँ कि मौसम कोई भी हो सब अच्छे होते हैं बस तुम ही नहीं होते यही ग़म होता है. आज सोचती हूँ दुनिया बहुत आगे चली गयी है और मैं वहीं खड़ी हूँ... तुम्हारे इंतज़ार में... नहीं मेरा तो स्कूटर पंकचर है और कोई उसे दुकान तक पहुँचाने वाला नहीं दिख रहा, मित्रों वाकई मौसम की धूप बहुत तल्ख़ होती जा रही है.

2 comments:

  1. यादें ज़िन्दगी का बहुत बड़ा खजाना है जितना सहेजो उतना ही अच्छा है. यूं लिखती रहे !

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  2. itana sanjeeda likhna....! mai kuchh kahane me asmarth paa rah hun khud ko...!

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