Saturday, October 24, 2009
ढलान से उतरते हुए
कुछ महीने बड़े ही तरतीब से बीते जैसे फूलों को खिलते हुए देखने के लिए कोई जागा करे. मैंने भी कुछ ही क्षणों को मुरझाते हुए देखा बाकी तो व्यस्तताओं की भेंट चढ़ गए. इधर मौसम में थोड़ी ठंडक आई तो बीते कई सालों के टूटे फूटे चहरे याद आए।
एक संक्षिप्त सी कविता
तुम्हारी हथेलियों की गंध
जो मेरी रूह में समाई थी
अब भी फैली होगी हवा में कहीं.
बाहों का पसीना
महकता होगा सरसों के खेत सा
आवाज़ के कुछ टुकड़े
बिखरे होंगे सूखे पत्तों में,
जाने क्यों सोचती हूँ ऐसा
और क्यों बची रहती है उम्मीदें
बाद मुद्दत के, कहीं न कहीं.
मैं जब भी उतरती हूँ
सुंदर, ऊँचे पेड़ों से भरी वादी की ढ़लान
अपने कांधों पर पाती हूँ
एक बेजान अहसास,
गोया पेड़ से पत्तों की जगह
दम तोड़ चुकी इच्छाएं झरती हों.
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