कविता का पहला ड्राफ्ट प्रस्तुत है, जाने क्यों इसकी आखिरी पंक्तियाँ अभी भी मेरे सुरों से खफा सी हैं उन्हें आप तक नहीं पहुंचा रही हूँ. मुमकिन है कि कभी खोयी हुई लय मिल जाये तो उन्हें संवार सकूँ.
आसमान के बिखरे टुकड़ों को
बादल के फाहों से सी लें आओ रंग शाम के जी लें.
लकड़ी के लट्ठों पे टिकी
सील सीले घर की दीवारें
लोहे के पतरों का छज्जा
दीपक रखने के ये आले
सब मकड़ी के जालों से अटे पड़े हैं
जो हँसते थे सरद दिनों में
वे अनार भी चुप से खड़े हैं
इस ठहरे मौसम को धूणी दे दें
और फूलों से पीले हो ले.
ये भी सोचे कि
कितने ही दिन बीते हैं
झबरेले पिल्लों की थूथन को सूंघे
उनको अपने सर पे बिठाये
खुशियों के बाजू में लिटाये,
सच कितने ही दिन बीते हैं
अपने आप को हाथ लगाये,
जाने अब भी
उन पिल्लों की थूथन का ऐ सी
क्या वैसी ही ठंडी खशबू देता है
ये सोचें और गीले हो लें.
नल के पानी की छप छप से
आँगन में जो चेहरे बनते थे
वे हंसते थे, वे रोते थे,
लाल ईंट पर फैली उलझी
उन कांच मढ़ी तस्वीरों का चूरा
यादों की खिड़की में महकता होगा,
आओ कि झांकें उस खिड़की से
भूले बिसरे आंसू हम पी लें.