Sunday, January 17, 2010

अनार भी चुप से खड़े हैं





कविता का पहला ड्राफ्ट प्रस्तुत है, जाने क्यों इसकी आखिरी पंक्तियाँ अभी भी मेरे सुरों से खफा सी हैं उन्हें आप तक नहीं पहुंचा रही हूँ. मुमकिन है कि कभी खोयी हुई लय मिल जाये तो उन्हें संवार सकूँ.

आसमान के बिखरे टुकड़ों को
बादल के फाहों से सी लें
आओ रंग शाम के जी लें.

लकड़ी के लट्ठों पे टिकी
सील सीले घर की दीवारें
लोहे के पतरों का छज्जा
दीपक रखने के ये आले
सब मकड़ी के जालों से अटे पड़े हैं
जो हँसते थे सरद दिनों में
वे अनार भी चुप से खड़े हैं
इस ठहरे मौसम को धूणी दे दें
और फूलों से पीले हो ले.

ये भी सोचे कि
कितने ही दिन बीते हैं
झबरेले पिल्लों की थूथन को सूंघे
उनको अपने सर पे बिठाये
खुशियों के बाजू में लिटाये,
सच कितने ही दिन बीते हैं
अपने आप को हाथ लगाये,
जाने अब भी
उन पिल्लों की थूथन का ऐ सी
क्या वैसी ही ठंडी खशबू देता है
ये सोचें और गीले हो लें.

नल के पानी की छप छप से
आँगन में जो चेहरे बनते थे
वे हंसते थे, वे रोते थे,
लाल ईंट पर फैली उलझी
उन कांच मढ़ी तस्वीरों का चूरा
यादों की खिड़की में महकता होगा,
आओ कि झांकें उस खिड़की से
भूले बिसरे आंसू हम पी लें.



Friday, January 1, 2010

उम्मीदें

मौसम के नए फूल मुबारक हों सबको और समय के ये नए पल भी

पल्लवों की उम्मीदें

हरित
पल्लवों की उम्मीदें
मौसम की गुलाम नहीं होती
जैसे बरगद उगता,
पुराने किले की सबसे उंची
दीवार पर, मेहराब को तोड़ने.

कभी छूट जाया करते हैं
कदमों के निशां
पहाड़ों की सख्त चट्टानों पर,
अरावली और विंध्य वाले
अभी तक करते हैं दावा कि
पांडवों के पदचिह्न बने हुए हैं.

पहाड़ी की उपत्यका में
शांत सजीव खड़े मठ से
आशीर्वाद अब भी बोलते हैं
जबकि
बाबा चंचलनाथ
समाधी लेने के बाद भी
हरिद्वार में दिखे थे
क़स्बे के जोशी परिवार को.

मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ
इन अद्भुत अचरजों के बारे में
कि पैर भले पांडवों के ना हो
कि बाबा से मिलने का धोखा हुआ हो...

मगर उम्मीदें अक्सर
पहाड़ का सीना चीर कर
उगती है नन्हे फूल की तरह.




[ photo courtesy: http://snipd.com/]