नन्ही परियां उड़ती है तितलियों सी किसी के हाथ ना आने को, लड़के भरते हैं कुलांचें जंगल के ओर छोर को नापने की जिद में। झुरमुट की आड़ में युवा थामता है हाथ, टटोलता है प्रेम का घनत्व। युवती सूंघती हैं साँसें स्त्रीखोर की मामूली पहचान को परखने के लिए। बूढे कोसते हैं समय को और लौट लौट आते हैं पार्क की उसी पुरानी बेंच पर जिसका एक पाया, उन्होंने कभी देखा ही न था।
दो :
बादल निगल जाते हैं जब आकाश की ज्यामितीय रचना को सितारों को ढक लेती है भूरे रंग की बेहया जिद्दी धूल तब भी दिखाई देती है झुर्रियों वाली बुढ़िया आदिम युगों से आज तक कातती हुई समय का सूत।