Tuesday, October 12, 2010

दुनिया, नियो फासिज़्म की ज़द में

जोहांसबर्ग से लन्दन के बीच की बी ऐ की एक फ्लाईट के दौरान एक श्वेत महिला यात्री ने परिचारिका ने शिकायत की "आपने सीट देते समय वास्तव में कुछ भी ध्यान नहीं दिया है. मैं ऐसी सीट पर यात्रा नहीं कर सकता जिसके पास वाली सीट पर कोई काला आदमी बैठा हो. आप अभी मुझे स्थानापन्न के तौर पर दूसरी सीट दें." परिचारिका ने बताया कि इस यात्रा की लगभग सभी सीटें भरी हुई है फिर भी आप शांत रहिये मैं कप्तान से बात करती हूँ. परिचारिका ने लौट कर कहा "हमारे पास इकोनोमी क्लास में कोई सीट उपलब्ध नहीं है. इकोनोमी क्लास में यात्रा करने वालों को हम बिजनेस क्लास या फर्स्ट क्लास में शिफ्ट नहीं कर सकते हैं फिर भी हम इस भद्दे और बेहूदा विषय पर कोई विवाद नहीं चाहते हैं और हमारे पास फर्स्ट क्लास में एक सीट उपलब्ध है." परिचारिका ने बिना रुके काले यात्री से कहा "कृपया आप अपना लगेज़ अपने साथ ले लीजिये, फर्स्ट क्लास में एक सीट आपका इंतजार कर रही है." विमान यात्री चकित थे. उन्होंने इस निर्णय पर खड़े होकर तालियाँ बजाई.

* * *

रंग रूप, देह के आकार प्रकार, स्थान, भाषा, बोली, पहनावे, खान-पान और रहन-सहन को लेकर भेद करते हुए व्यवहार किया जाना, नस्ल भेद कहलाता है. सर्वाधिक चर्चित रहा रंग भेद महात्मा गाँधी से लेकर नेल्सन मंडेला के प्रयासों से विचारणीय हुआ और आधुनिक दुनिया में इसके ख़िलाफ़ समझ को विकसित करने मदद मिली. ये कितने अफ़सोस की बात है कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के ख़िलाफ़ उसकी देह यष्टि को लेकर भेद बरता जाये लेकिन अब ये सिर्फ अफ़सोस मात्र नहीं है. दुनिया के उपेक्षित तबकों और उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे संगठनों का कहना है कि ये नियो फासिज़्म का रूप लेता जा रहा है.

नियो फासिज़्म यानि अपने समूह के अतिरिक्त अन्य जिन लोगों से आपकी होड़ है या फिर सामना होता है. उनकी जीवन शैली पर तीखे उपहास भरे कमेन्ट करना और उन्हें अमर्यादित भाषा के प्रयोग से उकसाना. किसी के निचले मोटे होठ को देख कर उसे हब्शी कहना एक साम्प्रदायिक टिप्पणी है. ये मनुष्य मात्र के सामान्यतम अधिकार का हनन है. रंग को लेकर अभिजात्य वर्ग में होने का गुमान वास्तव में एक दमित कुंठा है कि किस तरह उससे गहरे रंग का व्यक्ति उसके बराबर या उससे उच्च स्तर का जीवन जी सकता है.

भौगोलिक, धार्मिक और गुणसूत्रों के आधार पर मानव के साथ भेद किये जाने के उदहारण बड़े आदिम है किन्तु एमनेस्टी इंटर नॅशनल ने यूरोप और मध्य एशिया रिपोर्ट 2010 में मानवाधिकारों के हनन पर चिंता जताई है.रिपोर्ट का कहना है कि इन सालों में बदलती हुई आर्थिक स्थितियों के चलते हुए इमिग्रेशन बढ़ा है और इससे नस्लीय होड़ सम्बंधी नाम देकर हमले किये जा रहे हैं. यहाँ राष्ट्रीयता को लेकर भी भेद करते हुए प्रताड़नाएं बढ़ी हैं.

पूँजी के केन्द्रीयकरण के कारण विश्व के अधिकतर संपन्न देशों पर कामगारों का दवाब बढ़ता रहा है. फलस्वरूप वहां देश और धर्म के नाम पर रिहाइशें होने लगी हैं. अब स्थितियां बिगड़ती हुए उस स्तर तक आ चुकी है जहाँ विश्व ने अगर एकजुट होकर प्रयास नहीं किया तो लगभग सभी देशों के गृह युद्ध में घिर जाने की आशंकाएं हैं. एक ही देश में अलग अलग समूहों द्वारा आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए किये जा रहे नस्लीय हमले इतने बढ़ गये हैं कि उनको सामाजिक स्वीकृति मिलने लगी है. यह वाकई चिंतनीय है.

पूर्वाग्रहों के आधार पर बर्बर व्यवहार करने के मामले में अमेरिका से भी अधिक भयावह हालात आस्ट्रेलिया में रहे हैं. वहां पिछली एक सदी के इतिहास में रंग और नस्ल भेद के जरिये व्यापक अत्याचार किये गये हैं. राजनितिक पार्टियाँ भी उभरती रहीं, जो कि सफ़ेद और काले के नाम चुनाव लड़ रही हैं. किसी भी राष्ट्र के लिए इससे अधिक चिंताजनक बात क्या हो सकती है कि उसके देश में चुनाव, रंग के आधार पर होने लगे. इस तरह के उभार पर विश्व ने एकजुट होकर आस्ट्रेलिया को खरी खोटी भी सुनाई थी.

वर्ष दो हज़ार में सिडनी में आयोजित ओलम्पिक, खेलों के इतिहास में नस्लभेदी बर्ताव और टिप्पणियों के सर्वाधिक चर्चित रहे हैं. यह खेल आयोजन का सबसे बुरा अनुभव था जहाँ खिलाडियों को उनकी प्रांतीयता, रंग रूप और सभ्यता के कारण वर्गीय फिकरों का सामना करना पड़ा था. आस्ट्रेलिया में पिछले तीन साल से भारतीयों पर लगातार हमले हुए हैं. सरकार और आस्ट्रेलियन समाज इस पर किसी भी तरह का स्पष्टीकरण देने में असमर्थ रहा है. ऐसा अक्सर होता था कि विकसित देश अपने नागरिकों को पिछड़े देशों की लचर कानून व्यवस्था के कारण अपनी यात्राएं टालने को कहते आये हैं किन्तु भारत सरकार ने भी अपने यात्रियों से आस्ट्रेलिया की यात्राएँ स्थगित करने को कहना पड़ा. ये आस्ट्रेलिया जैसे देश के लिए शर्म की बात है.

अमेरिका पर हुआ अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला भी नस्ल भेद का उदहारण है लेकिन जो अमेरिका आज हमें दिखाई देता है वह वास्तविक अमेरिकियों का प्रतिनिधि नहीं है. अफ्रीका के रंग भेद से भी बदतर व्यवहार मूल अमेरिकियों के साथ हुआ है. इतिहास इस बात का गवाह है कि वहां के मूल निवासियों को जंगलों और मासूस हिरणों की तहर काट डाला गया था. औपनिवेशिक दौर में जो नस्ल आधारित समाज रहा है, आज उसका दंश अमेरिका को झेलना पड़ रहा है.

नस्ल भेद आधारित शासन के विरुद्ध लम्बी लड़ाई का ताजा उदहारण भले ही अफ्रीका हो लेकिन पिछले कुछ दशकों में गुपचुप तरीके से सम्प्रदायवाद हर राष्ट्र में स्थान बना चुका है. मध्य एशिया, यूरोप, आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका और अरेबिक देशों में घृणा का स्तर बढ़ता ही जा रहा है. इसके मूल कारणों में एक है वैश्विक आर्थिक मंदी किन्तु असमर्थ सरकारें निरंतर अपनी असफलताओं को इसी तरह के विषयों पर थोपना चाहती है. असली तकलीफ को एक भयावह विचार के माथे पर मढ़ना ही वास्तव में नियो फासिज़्म का पोषण है.

खेलों में होड़ और हार से उपजी कुंठा में व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खोकर अमानवीय टिप्पणी कर सकता है लेकिन जब ऐसी टिप्पणियाँ रणनीति का हिस्सा हो जाये तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. भद्र पुरुषं का खेल कहा जाने वाला क्रिकेट नस्लीय व्यवहार का एक बड़ा उदहारण है. इसका प्रमुख कारण है कि इस खेल को अधिकतर वे देश खेलते हैं जो कभी ब्रिटेन के उपनिवेश हुआ करते थे.

दिल्ली कॉमन वेल्थ गेम्स में हुई भद्दी टिप्पणियां वास्तव में घृणा की उस लहर की ओर इशारा कर रही है जो दुनिया को अपने काबू में करती जा रही है. न्यूजीलेंड के प्रमुख चेनल की वेबसाईट वीडियो एक्स्ट्राज में पाल हेनरी लाफ्स अबाउट शीला दीक्षित, तीरंदाजी के प्रमुख कोच लिम्बा राम के साथ पराजित अंग्रेज दल के मुखियाओं का दुर्व्यवहार और दक्षिण अफ़्रीकी तैराक रोला शूमैन का आस्ट्रेलिया के पत्रकार को दिया गया बेहूदा साक्षात्कार, नियो फासिज़्म संक्रमण के चपेट में आये लोगों को चिन्हित करता है.

Sunday, August 1, 2010

मित्र दिवस, फेसबुक और एडल्ट फ्रेंड फाईन्डर के बहाने सबको बधाई

मित्रता के इतिहास में दो शब्द ऐसे आये कि लोग इससे आँखें बचा कर निकलने लगे. एक था बोस्टन मेरिजेज यानि लेस्बियन और दूसरा होमो सेक्स्युअल. वस्तुतः मित्रता और उसके विभिन्न आयाम नए नहीं हैं, न ही पुराने. ये तो मनुष्य और अन्य प्राणियों के साथ ही जन्मे हैं और जब तक यह सभ्यता बची रहेगी तब तक मित्रता भी बची ही रहेगी. समलेंगिकता के लिए जिस फ्रेंडशिप को जिम्मेदार ठहराए जाने का प्रयास किया जाता रहा है वह तो आदिम काल से ही जीवित है. धर्म ग्रंथों ने इसे अनुचित बताया है यानि तब भी इस तरह के संबन्ध रहे होंगे. समलैंगिक संबन्ध चाहे जितने गैर जायज हो किन्तु मनुष्य की अपनी कमजोरियां उसके उद्भव से है. आगे भी बनी रही रहेगी. जिस तरह से निस्वार्थ साथ की अनुभूति को हम फ्रेंडशिप कह कर उल्लासित होते हैं. उसी तरह कुछ मित्र इससे आगे का जीवन जीते आ रहे हैं.

महिलाओं के एक साथ रहने की जीवन चर्या को अमेरिकन लोग बोस्टन मेरिजेज कहते रहे हैं. उनका मानना है कि दो महिलाये जो बिना किसी पुरुष के सहयोग से एक ही छत के नीचे साथ रहती हों, बोस्टन मेरिज है. इसमें आवश्यक नहीं कि वे शारीरिक रूप से भी जुड़ी हुई हों किन्तु इस सहवास को भी लेस्बियन आचरण ही माना जाता रहा है. इस जीवन शैली को नकारा जाता रहा है, इससे समाज की व्यवस्था के भंग हो जाने के खतरे के किस्से रचे गए किन्तु ये समाज के बीच का इतना छोटा हिस्सा था कि इससे सम्पूर्ण व्यवस्था पर अभी तक कोई आंच नहीं आई है. इसका दुष्प्रभाव ये रहा कि पुरुष और महिला के समलैंगिक मित्रों को फूहड़ता से जोड़ कर देखा जाने लगा. अधिसंख्य स्त्रियों और पुरुषों ने अपने आचरण में यथा संभव बदलाव किया या फिर उन्होंने इन सम्बंधों को सार्वजनिक होने से बचाना आरम्भ कर दिया. इस तरह की मित्रता के मसहले पर हमारे देश में भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने किसी भी रूप में जबरदस्ती ना करने का आदेश दिया है.

फ्रेंडशिप को लेस्बियन और होमो जैसे शब्दों ने बहुत प्रभावित किया लेकिन इस खूबसूरत अहसास ने अपनी उपस्थिति को और सुंदर बनाया है. आज भी अपने दुःख और सुखों को बांटने के लिए मनुष्य मित्रों को बुलाता रहता है. प्रेम से अलग हट कर के इस अनुभव को बहुत बार 'प्रेम' शब्द से सभी जोड़ा गया और अनपेक्षित रूप से जहाँ दोस्ती है वहां प्रेम की आंच उपस्थित है, के नारे उछाले गए. कोई दो मित्र जो अपने निजी जीवन के तमाम अच्छे बुरे पलों को बाँटते हुए आगे बढ़ते हैं तो ये कतई जरूरी नहीं है कि वे प्रेमालाप में डूबे हैं. एक बेहद निजी सुरक्षा बोध का नाम भी तो है मित्रता. बीती सदी में मित्र क्लब हुआ करते थे जहाँ एक नियत समयांतराल से परिवार और परिवार के सभी मित्र मिलते और आनंद मनाया करते थे. वे खाने - पीने की पार्टियाँ भी हो सकती थी या फिर खेलकूद की या सिर्फ चाय पानी की. उनके होने से ही बहुत बार हम खुद को सामाजिक कह पाते थे यानि मित्रता हर हल में सामजिक ही है. 

फ्रेंडस क्लब में समय के साथ बदलाव आया जैसे जैसे तकनीक का विस्तार हुआ वैसे वैसे ही दोस्ती के ठिकाने बदलने लग गए. भारत में अस्सी और नब्बे का दशक दोस्ती को कॉफ़ी हॉउस और किटी पार्टियों से बाहर निकाल कर सिनेमा घरों और थियेटरों में लेकर आया. पार्कों और नदी किनारे होने वाले "गोठ" आयोजन भी बदल कर रेस्तराओं की पार्टियों में बदल गए. अपनी ख़ुशी के इज़हार के लिए मित्रों को आमंत्रित करना एक पूर्ण सामाजिक क्रिया बेहद सुकून भरी हुई थी. ठीक इसके साथ बेहद दुःख भरे क्षणों में भी मित्रों की पहुँच भी बढ़ने लगी थी. आठवे दशक के तीस साल बाद आज मास कम्यूनिकेशन के क्षेत्र में मिली आशातीत सफलता ने मित्र के मायने ही बदल दिये हैं.

मेरी एक मित्र अंजलि उडीसा की रहने वाली है. उसने एक बार मुझे वहां की एक खास परंपरा के बारे में बताया था कि वहां पर मित्र बनाये जाने का रिवाज है. यह कार्यक्रम एक सार्वजनिक समारोह जैसा होता है जिसमे लगभग किसी अंगेजमेंट सेरेमनी जैसा लुक दिखाई देता है. किसी भी उम्र के दो विपरीत लिंगी इसमें मित्र हो सकते हैं. इस मित्रता में ऐज़ और सोशियल स्टेट्स की कोई लिमिट नहीं है. इस समारोह के बाद वे दोनों परिवार का हिस्सा हो जाया करते हैं. दोनों परिवार बिना किसी रक्त संबन्ध के सम्बन्धी हो जाते हैं. मुझे लगता है कि बेहतर समाज के निर्माण की भावना इस कार्य में जरूर छिपी रही होगी. किस सुन्दरता से आप अपने लिए एक नया घर और परिवार पाते हैं. टूटते हुए रिश्तों के बीच किसी ऐसे रिश्ते के बारे में सोचना मुझे आज भी बहुत प्रीतिकर लगता है.

तकनीक के इस युग में आज ऑरकुट और फेसबुक जैसी सैंकड़ों शोसल नेट्वर्किंग साईट्स उपलब्ध है. इन साईट्स पर आपको फ्रेंड के लिए उपयुक्त लोग मिलते हैं और कुछ ही क्लिक्स में आप उनके फ्रेंड हो सकते हैं. ये साईट्स इतनी लोकप्रिय हो चुकी हैं कहा जाता है कि इनके यूजर्स की संख्या भारत और चीन की आबादी के योग से भी अधिक है जबकि वास्तविक रूप से दुनिया भर में इंटरनेट की पहुँच कुल आबादी के पांच फीसद हिस्से तक पहुंचना भी मुश्किल लग रहा है. ऐसे में ये आंकड़ा आश्चर्यचकित करने वाला है. शोसल नेटवर्किंग साईट्स ने मित्रता के जो नए स्वरूप हमारे सामने रखे हैं. वे चौंकाने वाले हैं. कहा जाता है कि किसी के एक सच्चा मित्र हो तो वह इंसान सौभाग्यशाली है इसके ठीक विपरीत फेसबुक पर फ्रेंड लिमिट पांच हज़ार की है और कल एक मित्र को एड करने के लिए मैंने क्लिक किया तो वह प्रोफाइल इस लिमिट को छू चुका था.  कितना भाग्यशाली इन्सान है वह जिसके पांच हज़ार दोस्त हैं ? एक दोस्त के मुकाबले पांच हज़ार तो मन में एक सवाल भी उठता है कि ये कैसी दोस्ती है जिसमे इंसान को पांच हज़ार दोस्तों के नाम भी शायद ही याद हो.

व्यक्ति अपने वास्तविक दुखों से मुक्ति पाने के लिए इस तरह की शोसल साईट्स पर जाता है. यहाँ के अनुभव वास्तव में किसी मनोरोगी को दिये गए सेडेटिव जैसे ही हैं कि जैसे ही आप उसके नशे से बाहर आये समस्याएं जस की तस खड़ी होती हैं तो आप फिर से उसी नशे में डूब कर उन्हें भूल जाना चाहते हैं. इन साईट्स पर निश्चित ही आपको नए लोगों से संवाद करने को मिलता है किन्तु ये इतनी समय खाऊ हैं कि हम अपने वास्तविक मित्रों की उपेक्षा करने लगते हैं. प्रकृति से हमारा संबन्ध टूटता जाता है. स्वास्थ्य के लिए कई गंभीर चुनौतियाँ भी यही आकर खड़ी हुई हैं. स्पर्श के सुख से हम वंचित होते जा रहे हैं और एक आभासी संसार में नकली गुलदस्ते भेजते हैं, न याद रहने योग्य जन्म दिनों पर मुबारकबाद देते हैं और जिंजर बीयर की तस्वीर पाकर ही सोचते हैं कि आज तो पार्टी हो गई.

फ्रेंडशिप के बहाने अपने कारोबार में लगी हुई ये साईट्स धोखे का आवरण ओढ़े हुए हैं. फेसबुक का ही एक एप्लीकेशन है आर यू इंटरेसटेड ? मुफ्त में नेट्वर्किंग उपलब्ध करने का दावा यहाँ आते ही खुल जाता है. इसमें आप महिला या पुरुषों को ये बता सकते हैं कि मेरी आप में रूचि है. आपको इस सेवा का लाभ उठाने के लिए छः माह के दस डॉलर से शुरू हुआ प्लान चुनना होता है. इसके कई प्रीमियम वर्जन भी हैं. कुल मिला कर इस एप्लीकेशन में अमेरिकन एडल्ट फ्रेंड फाईन्डर से अलग कुछ नहीं है. यानि कोई सेवा समाज सेवा नहीं है सब स्वपोषित और निस्वार्थ होने के दावे सब कुछ वर्च्यूअल होने के बावजूद पैसा बटोरने के मामले में असली हैं.

मेरे कुछ मित्रों का मानना है कि ऐसी मित्रता में कोई खोट नहीं है मगर मैं उनसे पूछती हूँ कि इसका हासिल भी क्या है ? आपके सभी मित्र अपने व्यक्तिगत सुख और दुखों की जगह यू ट्यूब से लिए गए वीडियो, पुराने शायरों के शेर, अंग्रेजी में क्योट्स जो एस एम एस बन कर मोबाईल के जरिये आप तक पहले ही पहुँच चुके होते हैं उन्हें बांटते रहते हैं? इस वर्च्यूअल फ्रेंडशिप में बातें भी वैसी ही हैं. इस समय और श्रम - धन खपाऊ कार्य से बेहतर है कि घर और परिवार के साथ समाज के सक्रिय हिस्से हो कर असली सुख और दुखों में हाथ बढ़ाये जाएँ. मित्र एक भी सच्चा मिल गया तो वह जीवन की सबसे बड़ी पूँजी होगी ये कहावत आपको चरितार्थ होती दिखाई देगी.  
यह आलेख एक साप्ताहिक परिशिष्ट में कवर स्टोरी के रूप में छपे हुए लेख का हिस्सा है .

Sunday, July 25, 2010

नग्न होना ही एक सामान्य अवस्था है

नग्नता, महिलाएं और समाज, ये उलझी हुई बहस हमारे उपलब्ध संचित ज्ञान जितनी ही पुरानी है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाला जुमला हमारे लिए बेहद रूमानी है, इसका अर्थ "कुछ भी व्यक्त करने के" अपने अधिकार से जोड़ा जाता है. नग्न देह और समाज विषयक बहस में अपनी अपरीक्षित समझ से एकत्र और कम सुने अनदेखे अनुभवों के आधार पर स्थापनाएं कर इस विषय को और उलझाया जाता रहा है. हम में से अधिकतर लोग यह नहीं जानते कि मनुष्य के इस विरले जीवन की उत्पत्ति से लेकर आज तक नग्न होना एक सामान्य अवस्था है. अपनी इस देह को ढकने के ज्ञान का आयात मध्ययुगीन ग्रीक- रोमन सभ्यता से हुआ है. हमें जिस नयी सदी की प्रतीक्षा थी. उसके जाने के एक दशक बाद भी विश्व में अभी ऐसे समुदाय बचे हुए हैं जो अभी तक वस्त्र ज्ञान से अपरिचित हैं. वे पूर्ण नग्न अवस्था में अपने लघुतम समाज के साथ जी रहे हैं.

रोरैमा के उत्तरी ब्राजीलियन क्षेत्राधिकार में सोने और हीरे की खोज के दौरान पूर्ण नग्न अवस्था में रह रहे यूनोममिस समुदाय को हाल ही में फिर से चिन्हित किया गया है. यह पचास लोगों की सभ्यता है. जो अपने शरीर को मात्र फलों और पत्तों से ढकने का न्यूनतम प्रसास करती है. उनके मन में नग्न देह से शायद ही कोई ऐसा भाव संचरित होगा जो किसी रूप में अश्लीलता का बोध कराता हो. उनकी जीवन शैली आदिम से बेहतर है. वे भले ही बाहरी तकनीक की दुनिया से कटे हुए हैं मगर उनके बोध के अनुसार उनकी संभ्यता अल्टीमेट है, जैसा दावा हम हमारी इस सभ्यता के बारे में करते हैं. रियो ब्रान्सो का टुपरी आदिवासी समुदाय भी इसी तरह से आज भी जी रहा है. वह कपास के उत्पादन की तकनीक जानता है. परिवार की अवधारणा से परिचित है. एक स्त्री वहां माँ, बहन और बेटी के रूप में है मगर नग्नता से किसी भी तरह का विकार जन्म नहीं ले रहा.

प्राचीन ग्रीक सभ्यता के भारत के प्रति आकर्षण के विभिन्न कारणों में एक महत्वपूर्ण कारक ये माना जाता है कि हमारे यहाँ दार्शनिको का एक व्यापक समूह नग्न अवस्था में जीवन यापन करता था. इस समूह को जिम्नोसोफिस्ट कहा गया. इनकी उपस्थिति और क्रियाकलापों के अध्ययन हेतु सिकंदर महान ने अतुलनीय रूचि ली थी और अपनी भारत यात्रा का कारण ही इस नग्न दार्शनिक समूह से विमर्श करना बताया था. आज भी नागा बाबाओं के दल सहज स्वीकार्य है. वे हमारी पुरातन जीवन शैली का हिस्सा हैं. सिकंदर सम्भवतया इन्हीं के किसी गुरु से मिला होगा. नग्न होना या देह का स्थान विशेष से प्रकट होना तब तक श्लील और अश्लील के बोध से मुक्त ही माना जायेगा जब तक कि आपकी सोच पूर्वाग्रहों में सिमटी हुई ना हों.

एक महिला अथवा पुरुष देह को लेकर जितनी कुंठाएं और वर्जनाएं आज के समाज में है, उतनी आदिम और नासमझ कहे जाने वाले समुदायों में कभी नहीं रही. हमें ज्यादा बाहर और दूर देशों में झांकने की भी आवश्यकता ना होगी. पांच हज़ार साल के इतिहास वाले हमारे अपने देश के पहले के दो हज़ार साल स्त्री देह के बेहतरीन चित्रण के रहे हैं. देवी देवताओं के अस्तित्व की समझ, मनुष्य के अवतरण अथवा विकास के बहुत बाद की बात है. ये भी सहज स्वीकार्य होना चाहिए कि हमने एक सुंदर स्त्री को देख कर ही देवी के किसी दिव्य रूप की कल्पना की होगी और उसे ठीक उस स्त्री के जैसा चित्रित किया होगा. जो कालांतर में मनुष्य की कल्पनाओं के साथ अलौकिक स्वरूप में बदली गई होगी.

वर्तमान के पुरुष की दमित इच्छाओं से उपजी कुंठित सोच से आज स्त्री देह को उपभोग की वस्तु मान लिया गयाहै. एक स्त्री का पूर्ण अथवा आंशिक रूप से नग्न होने का प्रभाव उसके कार्य की प्रवृति के अनुरूप ना माना जा कर आवश्यक रूप से अमर्यादित आचरण की श्रेणी में गिना जाता है. यह आदिम समाज के सौदर्य बोध मन की निर्मलता के विपरीत हमारी सोच के पतन का प्रदर्शन है. इन दिनों कला और कलाकार के काम को सेंसर किये जाने के उद्देश्यों से प्रेरित एक निर्जीव विषय को फिर से जगाये जाने का प्रयास किया जा रहा है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपने धर्म और चरित्र की रक्षा के समर्थन के नाम पर विषवमन करने वाले ये भूल रहे हैं कि कला और कलाकार को भी यही हक प्राप्त है.

धर्म का आरोहण किसी महिला के बिना या उसकी उपेक्षा कर के किस तरह होगा, ये समझ से परे की बात है. आधुनिक भारत के पास अद्वितीय मूर्ति कला और चित्रण के जो नायब उपहार हैं वे सभी मध्ययुगीन समय के हैं. धर्म और संस्कृति के नाम पर दुहाई देने वालों को अभी भी गंभीर अध्ययन की आवश्यकता है. हमारी पुरातात्विक और संरक्षित संपदा से जिस महान सभ्यता का बोध शेष है. उसमे नारी कभी इतनी दमित नहीं रही. हजारों किलों, मंदिरों, सार्वजनिक स्थानों और बागीचों के प्रवेश द्वार पर नारी के अविस्मर्णीय सौन्दर्य की कृतियाँ उपस्थित है. उनकी नग्न देह के प्रति उस समय का शासन और समाज जितना सहिष्णु और कलाबोधी था उसका शतांश भी हमारी आज की सम्भ्यता में नहीं बचा है. आज सिर्फ देह को ढके जाने के फरमान है अपने मन को निर्मल किये जाने के नहीं.

खजुराहो के मंदिर समूह को मंदिर ही कहते हैं. वह स्थान जहाँ हम एक ईश्वरीय अलौकिक दिव्य प्रकाशपुंज से प्रार्थना करते हैं. वहां की मूर्ति कला, अजंता एलोरा की गुफाएं और कोणार्क के मंदिरों का सौन्दर्य सामाजिक था. जिसकी रचना प्रजा के अनुरंजन और शासक की आनंदमयी स्वीकृति के बिना संभव नहीं अर्थात महिला की देह का उन्मुक्त और इरोटिक प्रदर्शन पवित्र स्थलों पर भी जीवन के सम्पूर्ण आरोहण का अनिवार्य और सम्माननीय अंग था. आज टॉप लेस वूमन का एक छाया चित्र विवाद का कारण बनाया जाता है. यह किस सभ्यता का प्रतीक है सोचना मुश्किल है. नग्नता के फ्रेम में उस तस्वीर को फिट करने से पूर्व उस महिला के टॉप लेस होने के कारणों की चर्चा अनिवार्य होनी चाहिए मगर संकुचित समाज मनमानी स्थापनाएं कर दंड देना चाहता है ताकि स्त्री देह को किसी जींस की तरह उपयोग में लाया जा सके.

यह आलेख प्रिंट माध्यम में प्रकाशित हो चुका है.

Saturday, May 15, 2010

सखी, बातें कितनी सच्ची होती हैं





















आईना

पानी उतर रहा है तुम्हारे शीशे से
और साफ़ नहीं दिखाई देती है सूरत

नहीं
ये आईना तो
बच्चों के बाप की तरह गोलमोल बात करता है

चिट्ठी
दीवार से लगे बिजली के तार के पीछे
ये किसकी चिट्ठी खोंस रखी है तुमने

पता नहीं
पर दिखती कितनी सुन्दर है


सुविधा
घर तो बड़ा साफ़ सुथरा है

हाँ
सब आराम है, चार लोगों के लिए
पांच चारपाई और दो मोबाईल है
बस एक शौचालय नहीं है


बातचीत
बहन जो मैंने यूं ही पूछा
तुमने बुरा तो नहीं माना ?

बुरा क्यों ?
सुख के दो पल बीते
दुःख की दो घड़ियाँ भूली

चलूँ ?
हां जरूर, तुमको भी तो काम होगा...

जब घर के आँगन में बुहारी न लगी हों
तब मुझे जोर से देना आवाज़
कि मेरी सांस रुक न गयी हों.

[Image courtesy : http://listverse.com/]

Friday, March 12, 2010

गुमशुदा सिक्कों की याद


जब मैंने कम ही लिखे थे शब्द और ज़मीन पर इतना डामर फैला न था धूल के सहज मृदल स्पर्श से खिल उठता था मेरा बदन. उन दिनों पांच पैसे में आ जाया करते थे पांच खट-मिटिये, मिठास से भर जाती थी जिंदगी.

जब मैंने कुछ और शब्द लिखे तब मंहगाई बढ़ गयी थी. पिताजी स्कूल के बाद सायकल की दुकान चलाते, सुबह के निकले रात हुए घर आते मगर फिर भी पांच और दस पैसों का चलन जाता रहा. ये ठीक उन दिनों की बात है जब सरकारें गिर जाया करती थी. नेता नैतिक आचरण की मांग करते थे. वक्तव्यों पर शर्मिंदा हुआ करते थे सदन. इस सब के बावजूद जो सबसे छोटा सिक्का बचा था, वह मुझे हर तीन दिन बाद मिला करता मगर फिर भी पच्चीस पैसों में बहुत कुछ आता था।

जैसे जैसे मेरे शब्द बढ़ते गए लुप्त होते गए खनकदार छोटे छोटे सिक्के. जब आठ आने लेने से इंकार करने लगे थे दूकानदार, उन दिनों मेरे पिता थे इस दुनिया में. उन्होंने मेरी माँ से कहा था कि इसको दस रूपये दिया करो आज कल दो रुपये में आता ही क्या है ? मेरी किताबें जब अधिक बड़ी हो गयी और शब्दों का संसार भी, तब अखबार में था मौद्रिक नीति की फिर से समीक्षा होगी. साथ के कॉलम में रेल से कटे इंसान की ख़बर भी.

उन गुमशुदा सिक्कों की याद में एक अँधेरे जैसा अवसाद घेरता जाता है मुझे. मेरा माथा भर जाता है पसीने से, मुझे अपने ही घर में डर लगता है. अपनी मुट्ठी के पसीने में पांच पैसे दबाये फिर से चलना है मुझे... और सच कहना पापा वह पांच पैसे का चौकोर सिक्का कितना सुंदर दीखता था ?

Sunday, February 21, 2010

१४११ हंजू को नहीं पता कैसा दिखता है बाघ ?

मेरे घर के सामने
घना जंगल नहीं है
हरित पल्लव और
बासंती परिधान से सजी
धरती भी नहीं.

एक चालीस के पार विधवा
मींची हुई आंखों से
बुनती है एक बिछावन और
पेचवर्क से सुलझा लेना चाहती है
अपनी ज़िंदगी के उलझे हुए पेच.

सफ़ेद सूती कपड़े पर
रंगीन धागों से उगाती है जंगल
किनारे पर बिठाती है हाथियों का पहरा
हर एक टांक के बाद
झांक लेती है गली के पार
कि उसके बारह साल के बच्चे की
अब चाय की दुकान से छुट्टी हुई होगी.

दो लोगों के पलंग पर
बिछ जाने लायक
इस चादर के पूरा होते ही
उसने सोच रखा है
अपनी आँखें जरूर दिखाएगी
शहर के बड़े डागदर को.

अब साफ़ दिखाई नहीं देते हैं कटाव
पिछली चादर में
हाथी की पीठ पर लग गया था
ऊंट का कूबड़
इस पर वह देर तक खिलखिलाई थी
और अगले पूरे महीने
उसने बिना टोस्ट के पी थी चाय.

अपने हुनर की तारीफ में कहती है
बाई जी
मेरी चादर के पंछी बोलते हैं
हाथी पी जाते हैं घडा भर शराब
तोते लड़ाते रहते हैं चोंच प्यार से और
आदमी करता है शिकार
जैसे ईंट के भट्टे से
लौटता था दीनिये का बाप.

हंजू,
तुमने कभी बाघ नहीं बनाया ?
मेरे इस सवाल पर विस्मित हो
पूछती है कैसा दिखता है बाघ ?

[ Image Courtesy : 4to40।com ]

Thursday, February 4, 2010

तेरी याद जैसे रेत



धूल सी उड़ती है ख्वाबों में
धुंधले चेहरे
और ज्यादा खो जाते हैं
सूखे हुए इस दरिया के पार

स्मृतियों की पदचाप
सृष्टि के विनाश को उठते
वर्तुल सा भ्रम जगाती है

कि आस पास ही है
प्यास का फंदा

फिर भी सदियों से
कुओं के बचे हुए हैं कुछ पाट
और कुछ टूटी फूटी इबारतें
जिंदगी के लिए.

रेत पर पसरी
नाउम्मीद ख्वाहिशें विचरती है
मृग सी अमिट प्यास लिए

अगर मैं मरूंगी
अपने प्रियजनों के सम्मुख
तो देह सदगति पायेगी

न भी हुआ ऐसा
तो भी रेत तो भर ही लेगी
मुझे अपने अंक में...

मेरे जाने पर
तुम कोसना मत इस रेत को

पानी की प्यास से
कम ही मरता है आदमी
मृत्यु तो तब है
जब सूख जाये मेरी आँख से
तेरी याद का पानी.

Sunday, January 17, 2010

अनार भी चुप से खड़े हैं





कविता का पहला ड्राफ्ट प्रस्तुत है, जाने क्यों इसकी आखिरी पंक्तियाँ अभी भी मेरे सुरों से खफा सी हैं उन्हें आप तक नहीं पहुंचा रही हूँ. मुमकिन है कि कभी खोयी हुई लय मिल जाये तो उन्हें संवार सकूँ.

आसमान के बिखरे टुकड़ों को
बादल के फाहों से सी लें
आओ रंग शाम के जी लें.

लकड़ी के लट्ठों पे टिकी
सील सीले घर की दीवारें
लोहे के पतरों का छज्जा
दीपक रखने के ये आले
सब मकड़ी के जालों से अटे पड़े हैं
जो हँसते थे सरद दिनों में
वे अनार भी चुप से खड़े हैं
इस ठहरे मौसम को धूणी दे दें
और फूलों से पीले हो ले.

ये भी सोचे कि
कितने ही दिन बीते हैं
झबरेले पिल्लों की थूथन को सूंघे
उनको अपने सर पे बिठाये
खुशियों के बाजू में लिटाये,
सच कितने ही दिन बीते हैं
अपने आप को हाथ लगाये,
जाने अब भी
उन पिल्लों की थूथन का ऐ सी
क्या वैसी ही ठंडी खशबू देता है
ये सोचें और गीले हो लें.

नल के पानी की छप छप से
आँगन में जो चेहरे बनते थे
वे हंसते थे, वे रोते थे,
लाल ईंट पर फैली उलझी
उन कांच मढ़ी तस्वीरों का चूरा
यादों की खिड़की में महकता होगा,
आओ कि झांकें उस खिड़की से
भूले बिसरे आंसू हम पी लें.



Friday, January 1, 2010

उम्मीदें

मौसम के नए फूल मुबारक हों सबको और समय के ये नए पल भी

पल्लवों की उम्मीदें

हरित
पल्लवों की उम्मीदें
मौसम की गुलाम नहीं होती
जैसे बरगद उगता,
पुराने किले की सबसे उंची
दीवार पर, मेहराब को तोड़ने.

कभी छूट जाया करते हैं
कदमों के निशां
पहाड़ों की सख्त चट्टानों पर,
अरावली और विंध्य वाले
अभी तक करते हैं दावा कि
पांडवों के पदचिह्न बने हुए हैं.

पहाड़ी की उपत्यका में
शांत सजीव खड़े मठ से
आशीर्वाद अब भी बोलते हैं
जबकि
बाबा चंचलनाथ
समाधी लेने के बाद भी
हरिद्वार में दिखे थे
क़स्बे के जोशी परिवार को.

मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ
इन अद्भुत अचरजों के बारे में
कि पैर भले पांडवों के ना हो
कि बाबा से मिलने का धोखा हुआ हो...

मगर उम्मीदें अक्सर
पहाड़ का सीना चीर कर
उगती है नन्हे फूल की तरह.




[ photo courtesy: http://snipd.com/]