Sunday, December 6, 2009

तेरा वजूद

तीसरे मोड़ के
जेब्रा क्रोसिंग की
आखिरी उदास पट्टी पर
अब भी चमकता है
एक आंसू काले धब्बे सा,
ये मैंने
हर रोज वहीं जा कर पाया
कि
कुछ भी जाया नहीं होता
मेरे ईश्वर की इस दुनिया में,
जैसे आंसू टूट कर भी
पूरी तरह बिखर नहीं जाता.

मेरे अफसोसों में बस
एक यही सालता है मुझे
कि
धूप में मेरा साया
मिल नहीं पाता तेरे साये से,
और नीम अँधेरी शामों में
इक बिना साये की मुहब्बत
मुझसे मिलने आती थी।
फिर भी दोस्त
अपनी आँखों में
अब भी तुझे छुपा के रखा है
ऐसा नहीं है कि
तेरा वजूद
सिर्फ तेरे साथ चलता है.






















[तस्वीर सौजन्य : http://www.foundshit.com/tag/shadows/]

Tuesday, November 10, 2009

लाल स्कार्फ



















इस
साल नवम्बर में सरदी
जब पहाड़ को पार कर
घर के आँगन तक पहुँचेगी
चाय के लिए तुलसी के पत्ते लेने
मैं बाहर आया करुँगी
तब आना तुम खिड़की पे
देखूं, कैसा दिखता है
लाल स्कार्फ तुम्हारे गले में.

मैंने जब उसे बुना था,
मां दहकते लाल उपलों पर
सेक रही थी
मकई की मोटी रोटियां,
आंच से आती रोशनी में
वह मुझे खुश
दिखाई दिया करती थी,
उसके माथे के नूर से मिल कर
भीतर और बाहर की आग
हो जाया करती थी एकमेव.

तुम खिड़की पे आना...
नए मौसम की सरदी बन कर,
कि
तुम जब लाल स्कार्फ नहीं पहनते
लगता है माँ भी मेरे पास नहीं होती।

Saturday, October 24, 2009

ढलान से उतरते हुए




कुछ महीने बड़े ही तरतीब से बीते जैसे फूलों को खिलते हुए देखने के लिए कोई जागा करे. मैंने भी कुछ ही क्षणों को मुरझाते हुए देखा बाकी तो व्यस्तताओं की भेंट चढ़ गए. इधर मौसम में थोड़ी ठंडक आई तो बीते कई सालों के टूटे फूटे चहरे याद आए।


एक संक्षिप्त सी कविता



तुम्हारी हथेलियों की गंध
जो मेरी रूह में समाई थी
अब भी फैली होगी हवा में कहीं.
बाहों का पसीना
महकता होगा सरसों के खेत सा
आवाज़ के कुछ टुकड़े
बिखरे होंगे सूखे पत्तों में,
जाने क्यों सोचती हूँ ऐसा
और क्यों बची रहती है उम्मीदें
बाद मुद्दत के, कहीं न कहीं.
मैं जब भी उतरती हूँ
सुंदर, ऊँचे पेड़ों से भरी वादी की ढ़लान
अपने कांधों पर पाती हूँ
एक बेजान अहसास,
गोया पेड़ से पत्तों की जगह
दम तोड़ चुकी इच्छाएं झरती हों.

Sunday, June 21, 2009

दो कवितायें बिना शीर्षक के



एक :

नन्ही परियां
उड़ती है तितलियों सी
किसी के हाथ ना आने को,
लड़के भरते हैं कुलांचें
जंगल के ओर छोर को
नापने की जिद में।
झुरमुट की आड़ में युवा
थामता है हाथ,
टटोलता है प्रेम का घनत्व।
युवती सूंघती हैं साँसें
स्त्रीखोर की
मामूली पहचान को परखने के लिए।
बूढे कोसते हैं समय को
और लौट लौट आते हैं
पार्क की उसी पुरानी बेंच पर
जिसका एक पाया,
उन्होंने कभी देखा ही न था।


दो :

बादल निगल जाते हैं जब
आकाश की ज्यामितीय रचना को
सितारों को ढक लेती है
भूरे रंग की बेहया जिद्दी धूल
तब भी दिखाई देती है
झुर्रियों वाली बुढ़िया
आदिम युगों से आज तक
कातती हुई समय का सूत।




Saturday, May 23, 2009

एस्केलेटर





मंतव्य
तुम्हारे दांतों का सफ़ेद रंग
महज एक विज्ञापन होता है
या फ़िर
ये कोई और मंतव्य ढोता है।


क्रेच
सभ्य शालीन निपुण
पच्चीस साला युवती वाला क्रेच
बच्चों के लिए अच्छा होता है
हालाँकि केयर टेकर का बच्चा
घर में चारपाई से बंधा
रस्सी से खेलता और रोता है।


एस्केलेटर
तपती दुपहरी मे
गली से गुजरे युवक को
पहली नज़र में प्यार होता है
जबकि नवयौवना के साथ
हर रात मोतियाबिंद
लाचारी और
माँ का बुढापा सोता है।


*****

वर्तुल जीवन नही होता, सिर्फ़ सुख और दुःख होते हैं. जो उम्र भर एक दूसरे के पीछे भागते रहते हैं, प्यार को पाने दौड़ो तो पागल कहलाओ चुप बैठो तो सौदाई.... उसे नींद आती है मुझे देख कर और मेरी नींद उड़ जाती है उसको देख. जरूरी नहीं है ज़िन्दगी को दर्शन की तरह देखा जाए, कैसे भी देखो इसे बीत ही जाना है.

ऐसे सवालों ने दिमाग में दम कर रखा है.
*****


[Painting Image Courtesy : www। portraitpaintingcn.com ]

Sunday, May 3, 2009

कुछ नोट्स जिन्हें कविता कहा जा सकता है.




एक :
व्यवस्था के साथ
चली आती हैं विडम्बनाएँ
जैसे तुम्हारे साथ
निर्लजता ।

दो:
बाढ़ की त्रासदी के साथ
बह कर आती है नई मिट्टी
जैसे तुमपे रो लेने के बाद
देखती हूँ , दुनिया और भी है ।

तीन:
कई बार भेड़ें
स्वयं कटने को होती है प्रस्तुत
जैसे तुम्हारा फोन
उठा लेती हूँ कभी-कभी ।

चार:
ज्यादातर घटनाएँ
इतिहास में नहीं की जाती दर्ज
जैसे कालजयी है
नारी का रुदन।

पाँच:
सब नपुंसक
लिंग के कारण नहीं होते
जैसे कुछ पैदा होते हैं
अवीर्य आत्मा के साथ।


.

Saturday, April 18, 2009

समय अभी शेष है





सूरज की रोशनी उसने पढ़ी नहीं, चाँदनी में जलता है क्या कभी जाना नहीं, उम्रदराज पेडों के तनों से झांकते चेहरों को समझा नहीं, मानता रहा कि सदा पैरों तले कुचले जाने वाली दूब को कोई शिकायत क्यों होनी चाहिए हमारे धर्म में किसी पवित्र अनुष्ठान को दूब के बिना संपन्न होते देखा है कहीं, कहता रहा ऑफिस में लगे एक्वेरियम में मछलियाँ निहारने से ह्रदय की धड़कनों को खोयी हुई लय मिल जाती है।

इलेकट्रोंस से बनती बिगड़ती तस्वीरों में ढूंढता है मृत संवेदनाएं एक निश्चित अन्तराल पर हँसता हुआ उडाता है मजाक आदमीयत की, उसने कभी शाम बेवजह बाहर नही बितायी, बेवजह वह बोलता भी नहीं है उसे अपने गिने चुने शब्दों को दोहराते रहने से कभी बोरियत नहीं होती, उसे कुछ नही होता उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ लेमिनेट कर दी गई हों जैसे, मेरी चुप्पी से ही फूटते हैं उसके बोल...

तुम मुझे समझती क्यों नही?
किसको?
मुझे...
मुझे किसको ?
आदित्य नारायण सिंह को

मैं एक लम्बी साँस लेती हुई ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ, इसे अपना नाम याद है अभी , ये किसी कोड में नही बदला है, इसके पूर्ण यन्त्र में परिवर्तित होने का समय अभी शेष है...



॥आत्ममुग्धता ॥

दिल की बात कहने का हुनर जुबां को भी दे
इशारों के राज़ पढ़ने की आदत नहीं मुझे ॥



Sunday, April 5, 2009

चलता फिरता डॉलर है



सनसनाती हुई हवा का कोई झोंका ज़िन्दगी के उन हिस्सों को उघाड़ जाता है जिन्हें ढकने की हज़ार तरतीबें माँ, बुआ, दादी और सहेलियों के मुंह से निकल कर मेरे भीतर तक चिपकी रही, आसमान के टुकड़े कर झांकते रहे अपनी अपनी खिड़की से और फ़िर हल्दी से सी दिया एक तार सा आसमान... इसको हमारा आसमान कहते हैं उजला सा, खिला सा, बहका सा, सूना सा, नीला सा कितने गिनेंगे रंग आप... पर मेरे यहाँ एक ही मौसम आ कर ठहर गया है एकांत से भरे आसमान का मौसम।

मेट्रो की नमी भरी सीटों में, लोकल की लटकती हथ्थियों में, सपोर्ट के लिए खड़ी रंग उतरी रेलिंग में अजीब कशिश रही होगी कि दिन अंधेरे वह उन लोहे के घोड़ों पर सवार हो जाता और फ़िर प्लास्टिक के खिलोने से बोलता यांत्रिक स्वर में किसी विमान उड़ान में देरी की सूचना सा और मेरी ज़िन्दगी के सफ़र का एक और दिन रात बारह बजे अकेले रोटी के टुकडों को तोड़ते, पनीर से खेलते हुए बीत जाता।

हल्दी के रंग में मुझे पिलपिले रिश्तों का रंग दिखाई देता, सिंदूर किसी बुझते हुए सूरज से अलग रंग में नही खिल पाता, जरीवाले कपड़े कैंचुली छोड़ते से दीखते... बस ऐसे ही रंग रह गए हैं कबूतर खाने से घर में, खिड़की में रखे मनी प्लांट की पत्तियों में मुझे तुम्हारी सूरत दिखाई दे जाती है यदा कदा और मैं हरे रंग का वह पात्र बन जाती हूँ जिसमे तुम्हारी जड़ें होने के बावजूद नहीं दिखाई पड़ती... ना तुम्हें ना किसी और को। इसी का तो उत्साह था सबको घर में मौसी ने कहा भी था... लड़का क्या है, चलता फिरता डॉलर है...




*****

तुम क्या जानो

एक अरसे से तुमसे रूठी नहीं हूँ मैं
साथ रहते खुश हूँ ऐसा भी तो नहीं॥

*****


Wednesday, April 1, 2009

वक्त क्या हुआ है




दराज के अंधेरे कोने में जमी गर्द पर फूंक मारते ही अलसाये शब्दों ने जम्हाई लेते हुए पूछा वक्त क्या हुआ है ? यही कोई एक दोस्त को खोने जितना हुआ होगा, उदास मन बोला किंतु पुस्तक के पीछे से कोई पुराना चित्र भी दिखाई दे गया जो वक्त के कुछ और बीत जाने का आभास दे रहा था, यही पर कुछ पल असमय मर गए थे उनकी अस्थियाँ भी अब सीने से लगाने लायक नही रही तो झाडू से उनको बुहारा और एक अँधेरी सदी के मुहाने पर रखे कूड़ादान के भीतर उलट दिया। वे निशब्द अपनी नवीन यात्रा पर चल दिए हैं तो तस्वीर पर हाथ घुमाया जैसे कोई बनिया अपने उधार के खातों से किसी का प्यार वसूलना चाहता हो।

इस पहाड़ से बड़े हौसले वाले इन्सान ने जंगल में कंदराओं को, पानी में मूंगे की बस्तियों को, आसमान में फैले धूल के गुब्बार को, सूखे जंगल के अकेले पेड़ को, बुझी हुई नदी की पपडी से झांकते किसी जीव के खोल को यात्रा कर के खोजा और वहाँ शब्दों का कूड़ा करकट छोड़ आया, मेरे समय में भी घोर अकाल है एक ऐसी जगह का जहाँ शब्द न हों, जहाँ हो नितांत सूनापन, जहाँ कोई ये न पूछे की वक्त क्या हुआ है ?


असामयिक मृत्यु

याद की शक्ल बुनने की ताकत जिन शब्दों में नहीं

वे ही सदियों से पूछते हैं ऐ राजो वक्त क्या हुआ है.


Tuesday, March 31, 2009

आईने



कूड़े के ढेर में डूबते
सूरज को तलाशती है
गीली उंगलियाँ
उन्होंने ने सुना है
आज आईने बोलेंगे सच

आज ही हो सकती है
शिनाख्त परेड हत्यारों की
जिन्होंने सफाई से किए थे क़त्ल
कई सारे रंगीन ख्वाब

देह उन हत्याओं को
ब्लाईंड बता कर चुप है
जबकि दिल को है उम्मीद
राज़ खोले जायेंगे
फैसले बोले जायेंगे

अगर तुम नही हो
उन हत्यारों में से एक
तो सूरज छुपने ना दो
आज आईने बोलेंगे सच




Friday, March 27, 2009

तुम्हारा ख़याल



बहुत सुंदर लगती है
वेदों की ऋचाएं
कुरान की आयतें
बेवजह तुम्हारा ख़याल
काफ़िर बना देता है मुझे ॥

Thursday, March 26, 2009

तुम्हारा रंग

पिछले मोड़ के आखिरी लेम्प पोस्ट पर चिपकी तस्वीर में लड़की कितनी जगह से फटी थी अब भी याद है तुम्हें जबकि मैं कई दिनों से एक ही रंग के फूल तम्हारे सिरहाने रखे गुलदस्ते से बदलती रही हूँ भूल गए तुम। कितने अजब समय में जी रहे है हम की विस्मृतियों के पतझड़ भी लौट कर नहीं आते। फव्वारे पर पानी में किलोल करते पांखियों की ध्वनि सुनाई नहीं देती तुम्हें, जबकि कार में बैठी लड़की को बाईक वाला लड़का क्या कह गया तुम्हारे दिमाग में गूंजता रहता है। जब मैं कहती हूँ कि कितने अदब से झुका था तुम्हारा मित्र मुझे साथ देख कर और तुम्हें सिर्फ़ इतना याद रहा कि उसके बगल से निकली लाल कुरते वाली नवयोवना ने कोल्हापुरी चप्पलें पहनी थी। खिड़की के परदे अब मटमैले हो चलें है आओ इस बार कि तनख्वाह पर बदल ले तो तुम्हें मटमैली धूल के भीतर से घोड़े पर सवार दोनों हाथ लहराता आमिर खान दिखाई पड़ता है और उसमे भी तुम भीड़ में कई रंग तलाश लेते हो जो आज कल की लड़कियां पहन कर दूसरे लोक की हो जाया करती है। सच तो ये है कि जब पहली बार हम मिले थे तो आसमान पीला था, पानी लाल रंग का, पेड़ पौधे नीले हो गए थे इसलिए सब रंग ऐसे खो गए हैं दूसरे रंगों में जैसे तुम मेरे साथ होते हुए भी खो जाया करते हो दूसरों में। एक दिन मैं उसी लेम्प पोस्ट से पीछे मुङ कर जब भीड़ हो जाउंगी तब दिखाई दूंगी तुम्हें पर तब तक मेरे रंग से तुम्हारा रंग अलग हो चुका होगा।

Wednesday, March 25, 2009

दिल की बातें करो।

मेरे लिए दिन अब भी वैसे ही हैं जैसे बेकारी और बेजारी के दिनों में हुआ करते थे फर्क जो दिखाई पड़ता है वह ठीक किसी यांत्रिक कार्य सा है, आधुनिक यन्त्र का कोई पुर्जा जिस तरह अपना दौलन पूर्ण कर लौट आता है अपनी जगह ठीक वैसी ही हो गई हूँ मैंआज शाम को बिताने की चिंता नहीं रही पर, उन दिनों सर ऑर्थर कानन डॉयल का पात्र शरलौक होल्म्स जिस तरह निराशा जनक परिस्थितियों में कोई सूत्र ढूँढ लाता था उसी तरह बेकारी और बेजारी से मुक्त होने के कई सूत्र मैं भी खोज लिया करती थी, वे पढ़ने के दिन थे, वे आनंद और मस्ती के दिन थे उन दिनों महामंदी नहीं थी फ़िर भी रेस्तरा सस्ते हुआ करते थे, साल में दो बार आने वाले सबसे छोटे और सबसे बड़े दिनों को हम दोस्तों के साथ अपनी इच्छा से नापते थे, आपके कहने से क्या छोटा और क्या बड़ा ?
कुछ लिखने का ये सिलसिला मैंने कल ही आरम्भ किया है इसका अभिप्राय यह नहीं है की मैं भूल गई थी , यह भी नहीं कि इन दिनों मेरे पास कोई काम नहीं हैंमकसद है उन बीते हुए लम्हों में तराशे गए वजूद के धुंधला गए हिस्सों को फ़िर से रोशनी दिखानामीर तकी मीर से शाहिद मीर तक की परम्परा के शायरों से कोई मुहब्बत नहीं है ना ही रांगेय राघव की तरह कोई संस्मरण परक विविध आयामी लेखन करने का इरादा है, मुंशी जी के गाँव और निर्मल वर्मा की लन्दन की गलियां अब अपना अस्तित्व खो चुकी है वे अपने समय को दर्ज करके चिरनिंद्रा में असीम आनंद से होंगे किंतु मैं अगर अपने लिए कोई एक श्रोता जुटा पाई तो शायद ये रूह बेचैन हो कर, अमृतपान कर रही दूसरी प्रतिष्ठित रूहों को कहीं खींच कर मयखाने ले जाए इससे बचने के लिए लिख रही हूँमैंने अपने ब्लॉग में एक फिराक की ग़ज़ल भी टांगी है जो कहती है, दिल की बातें करो

Tuesday, March 24, 2009

मौसम की धूप

कॉलेज से बाहर निकलते हुए देखती हूँ मौसम बदल रहा है, वे दिन नही रहे जो सख़्त जाड़े का अहसास कराते और स्कूटर पे स्कार्फ बाँधे दूरी को कम हो जाने की दुआ करते थे अब दस पंद्रह दिनों मे तपती धूप वाले दिन आएँगे पसीना और कर्फ़्यू एक साथ लगेंगे गलियों मे, वैसे कई मौसम कैसे गुजरते थे याद नहीं पर पता ऩही क्यों उसके जाने के बाद हर मौसम मे बड़ी तन्हाई सी लगती है. एक बार अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन की ग़ज़ल सुन रही थी सब मौसमों की खूबसूरत बात चल पड़ी, उसे गीत कहा जाए तो सही होगा क्योंकि ग़ज़ल के आवश्यक तत्व भिन्न होते हैं खैर मेरा मकसद था तुमको याद करना चाहे वह गीत हो या फिर ग़ज़ल. "मौसम आएँगे जाएँगे हम तुमको भूल ना पाएँगे..."
हाँ यही थी इसे कई बार सुना था फिर एक दिन उनसे मुलाकात का वह दिन भी याद आया जब वे एक प्रोग्राम मे आए थे तो मैने पूछा अहमद साहब कितने सुरीले हैं आप सब आपको हाथों हाथ लेते हैं लेकिन उनकी आँखों की चमक में कोई फ़र्क ना आया. वे शायद अपने संघर्ष के दिनों की याद में खो गये थे ठीक वैसे ही मैं अपने हसीन दिनों की दुनिया मे खो जाया करती हूँ. आज फिर तेरी याद ने करवट बदली तो तुमको ये सब लिख रही हूँ कि मौसम कोई भी हो सब अच्छे होते हैं बस तुम ही नहीं होते यही ग़म होता है. आज सोचती हूँ दुनिया बहुत आगे चली गयी है और मैं वहीं खड़ी हूँ... तुम्हारे इंतज़ार में... नहीं मेरा तो स्कूटर पंकचर है और कोई उसे दुकान तक पहुँचाने वाला नहीं दिख रहा, मित्रों वाकई मौसम की धूप बहुत तल्ख़ होती जा रही है.