सनसनाती हुई हवा का कोई झोंका ज़िन्दगी के उन हिस्सों को उघाड़ जाता है जिन्हें ढकने की हज़ार तरतीबें माँ, बुआ, दादी और सहेलियों के मुंह से निकल कर मेरे भीतर तक चिपकी रही, आसमान के टुकड़े कर झांकते रहे अपनी अपनी खिड़की से और फ़िर हल्दी से सी दिया एक तार सा आसमान... इसको हमारा आसमान कहते हैं उजला सा, खिला सा, बहका सा, सूना सा, नीला सा कितने गिनेंगे रंग आप... पर मेरे यहाँ एक ही मौसम आ कर ठहर गया है एकांत से भरे आसमान का मौसम।
मेट्रो की नमी भरी सीटों में, लोकल की लटकती हथ्थियों में, सपोर्ट के लिए खड़ी रंग उतरी रेलिंग में अजीब कशिश रही होगी कि दिन अंधेरे वह उन लोहे के घोड़ों पर सवार हो जाता और फ़िर प्लास्टिक के खिलोने से बोलता यांत्रिक स्वर में किसी विमान उड़ान में देरी की सूचना सा और मेरी ज़िन्दगी के सफ़र का एक और दिन रात बारह बजे अकेले रोटी के टुकडों को तोड़ते, पनीर से खेलते हुए बीत जाता।
हल्दी के रंग में मुझे पिलपिले रिश्तों का रंग दिखाई देता, सिंदूर किसी बुझते हुए सूरज से अलग रंग में नही खिल पाता, जरीवाले कपड़े कैंचुली छोड़ते से दीखते... बस ऐसे ही रंग रह गए हैं कबूतर खाने से घर में, खिड़की में रखे मनी प्लांट की पत्तियों में मुझे तुम्हारी सूरत दिखाई दे जाती है यदा कदा और मैं हरे रंग का वह पात्र बन जाती हूँ जिसमे तुम्हारी जड़ें होने के बावजूद नहीं दिखाई पड़ती... ना तुम्हें ना किसी और को। इसी का तो उत्साह था सबको घर में मौसी ने कहा भी था... लड़का क्या है, चलता फिरता डॉलर है...
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अद्भुत लेखन और गज़ब अंदाजेबयां.
ReplyDeleteराजकुमारी जी।
ReplyDeleteआपने मन की व्यथा-कथा को
शब्दों में सुन्दर ढंग से बाँधा है।
बधाई।
यदा कदा और मैं हरे रंग का वह पात्र बन जाती हूँ जिसमे तुम्हारी जड़ें होने के बावजूद नहीं दिखाई पड़ती... ना तुम्हें ना किसी और को।
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एक अरसे से तुमसे रूठी नहीं हूँ मैं
साथ रहते खुश हूँ ऐसा भी तो नहीं॥
bahut achchha likhti hai aap
क्या खूब बयाँ है उस ज़िन्दगी का जिसकी ख्वाहिश में परिवार टूटते जाते हैं दादियाँ दूर से बुलाती रहती है, एक हिस्सा मशीन बना रहता है दूसरा चिमनी के धुएं के साथ उड़ता रहता है सुबह शाम.
ReplyDeleteमैडम जी कहाँ से शुरू करूँ और अंत कैसे होगा पता नहीं ....तारीफ करूँ भी तो कैसे करूँ ....कोई मुझे इसका रास्ता तो सुझाये ....अद्भुतीय लेखन ....कोई ऐसे शब्दों में बाँध सकता है ....लाजवाब
ReplyDeleteडालर का पेड लडके होते हैँ और लडकियाँ भी तो ..
ReplyDeleteआप लफ्ज़ोँ को बेहद खूबसुरती से पिरोती हैँ ~~
अपने जज़्बाज़ के मोती से बनी ये शब्द माला पसँद आयी ..
यूँ ही लिखती रहीयेगा .
स स्नेह,
- लावण्या
मन के उन कोनो का रंग इसमें दिखाई पड़ा जिन कोनो से मरियल रौशनी झरती है. ऊर्जा को तरसते,चटखपन को तरसते ये रंग मन के विषाद के रंग है.
ReplyDeleteएक उदासी को शब्दों से भी पैंट किया जा सकता है आपसे ही जाना.
vah kya lazvab abhivyakti hai
ReplyDeleteकई बार पढना पड़ा उदासी को , व्यथा को समझने की कोशिश में.
ReplyDeleteक्या सचमुच कोई लड़का लड़के से यूँ ही डॉलर में तब्दील हो जाता है?
हो ही जाता होगा
बहुत बढिया लिखा है।
ReplyDeleteबहुत भारी पोस्ट! समझने में थोड़ा वक्त लग गया! लेकिन समझ में आयी तो दिल कह उठा, "वाह वाह, वाह वाह!"
ReplyDeleteमाफ़ करे आपके इस लिखे हुये पर टिप्पणी क्या दे यही नही समझ पा रहे है। पहली बार यहाँ आये और शब्दों कि जादूगरी देखी देख कर अचंभित रह गये ।
ReplyDeleteवाह! कितनी सहजता और खूबसूरती से बताई मन व्यथा..
ReplyDeleteachcha lagi aapki yah post..... blog par pahli baar aaya .. achcha laga... bas likhte rahiye....
ReplyDeleteखिड़की में रखे मनी प्लांट की पत्तियों में मुझे तुम्हारी सूरत दिखाई दे जाती है यदा कदा ...और मैं हरे रंग का वह पात्र बन जाती हूँ जिसमे तुम्हारी जड़ें होने के बावजूद नहीं दिखाई पड़ती...behad khoobsoorat.
ReplyDeleteवर्षा के ब्लॉग से होता हुआ
ReplyDeleteअकस्मात इधर आना हुआ
और मैं चौंक गया .....इतना बेहतर ब्लॉग.
आपका ब्लॉग बेहद पठनीय है.
ऐसे इमानदार ब्लॉगर कम ही हें...इस ब्लॉग जगत में.
मेरा आदर स्वीकार करें.
सिंदूर किसी बुझते हुए सूरज से अलग रंग में नही खिल पाता, जरीवाले कपड़े कैंचुली छोड़ते से दीखते... बस ऐसे ही रंग रह गए हैं कबूतर खाने से घर में,
ReplyDeletekahan thii aap ab tak..adbhut vyanjana se bhari bhasha aur vichar pragatisheel.
badhai
लेख के अंत में दिया गया शेर लाजवाब करगया। बेहद आसान से लफजों में इतनी गहरी बात कहना बेहद मुश्कि होता है।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
बहुत अच्छा लगा आप का लिखा पढना..
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