Sunday, April 5, 2009

चलता फिरता डॉलर है



सनसनाती हुई हवा का कोई झोंका ज़िन्दगी के उन हिस्सों को उघाड़ जाता है जिन्हें ढकने की हज़ार तरतीबें माँ, बुआ, दादी और सहेलियों के मुंह से निकल कर मेरे भीतर तक चिपकी रही, आसमान के टुकड़े कर झांकते रहे अपनी अपनी खिड़की से और फ़िर हल्दी से सी दिया एक तार सा आसमान... इसको हमारा आसमान कहते हैं उजला सा, खिला सा, बहका सा, सूना सा, नीला सा कितने गिनेंगे रंग आप... पर मेरे यहाँ एक ही मौसम आ कर ठहर गया है एकांत से भरे आसमान का मौसम।

मेट्रो की नमी भरी सीटों में, लोकल की लटकती हथ्थियों में, सपोर्ट के लिए खड़ी रंग उतरी रेलिंग में अजीब कशिश रही होगी कि दिन अंधेरे वह उन लोहे के घोड़ों पर सवार हो जाता और फ़िर प्लास्टिक के खिलोने से बोलता यांत्रिक स्वर में किसी विमान उड़ान में देरी की सूचना सा और मेरी ज़िन्दगी के सफ़र का एक और दिन रात बारह बजे अकेले रोटी के टुकडों को तोड़ते, पनीर से खेलते हुए बीत जाता।

हल्दी के रंग में मुझे पिलपिले रिश्तों का रंग दिखाई देता, सिंदूर किसी बुझते हुए सूरज से अलग रंग में नही खिल पाता, जरीवाले कपड़े कैंचुली छोड़ते से दीखते... बस ऐसे ही रंग रह गए हैं कबूतर खाने से घर में, खिड़की में रखे मनी प्लांट की पत्तियों में मुझे तुम्हारी सूरत दिखाई दे जाती है यदा कदा और मैं हरे रंग का वह पात्र बन जाती हूँ जिसमे तुम्हारी जड़ें होने के बावजूद नहीं दिखाई पड़ती... ना तुम्हें ना किसी और को। इसी का तो उत्साह था सबको घर में मौसी ने कहा भी था... लड़का क्या है, चलता फिरता डॉलर है...




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तुम क्या जानो

एक अरसे से तुमसे रूठी नहीं हूँ मैं
साथ रहते खुश हूँ ऐसा भी तो नहीं॥

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19 comments:

  1. अद्भुत लेखन और गज़ब अंदाजेबयां.

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  2. राजकुमारी जी।
    आपने मन की व्यथा-कथा को
    शब्दों में सुन्दर ढंग से बाँधा है।
    बधाई।

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  3. यदा कदा और मैं हरे रंग का वह पात्र बन जाती हूँ जिसमे तुम्हारी जड़ें होने के बावजूद नहीं दिखाई पड़ती... ना तुम्हें ना किसी और को।
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    एक अरसे से तुमसे रूठी नहीं हूँ मैं
    साथ रहते खुश हूँ ऐसा भी तो नहीं॥
    bahut achchha likhti hai aap

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  4. क्या खूब बयाँ है उस ज़िन्दगी का जिसकी ख्वाहिश में परिवार टूटते जाते हैं दादियाँ दूर से बुलाती रहती है, एक हिस्सा मशीन बना रहता है दूसरा चिमनी के धुएं के साथ उड़ता रहता है सुबह शाम.

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  5. मैडम जी कहाँ से शुरू करूँ और अंत कैसे होगा पता नहीं ....तारीफ करूँ भी तो कैसे करूँ ....कोई मुझे इसका रास्ता तो सुझाये ....अद्भुतीय लेखन ....कोई ऐसे शब्दों में बाँध सकता है ....लाजवाब

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  6. डालर का पेड लडके होते हैँ और लडकियाँ भी तो ..
    आप लफ्ज़ोँ को बेहद खूबसुरती से पिरोती हैँ ~~
    अपने जज़्बाज़ के मोती से बनी ये शब्द माला पसँद आयी ..
    यूँ ही लिखती रहीयेगा .
    स स्नेह,
    - लावण्या

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  7. मन के उन कोनो का रंग इसमें दिखाई पड़ा जिन कोनो से मरियल रौशनी झरती है. ऊर्जा को तरसते,चटखपन को तरसते ये रंग मन के विषाद के रंग है.
    एक उदासी को शब्दों से भी पैंट किया जा सकता है आपसे ही जाना.

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  8. कई बार पढना पड़ा उदासी को , व्यथा को समझने की कोशिश में.
    क्या सचमुच कोई लड़का लड़के से यूँ ही डॉलर में तब्दील हो जाता है?
    हो ही जाता होगा

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  9. बहुत बढिया लिखा है।

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  10. बहुत भारी पोस्ट! समझने में थोड़ा वक्त लग गया! लेकिन समझ में आयी तो दिल कह उठा, "वाह वाह, वाह वाह!"

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  11. माफ़ करे आपके इस लिखे हुये पर टिप्पणी क्या दे यही नही समझ पा रहे है। पहली बार यहाँ आये और शब्दों कि जादूगरी देखी देख कर अचंभित रह गये ।

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  12. वाह! कितनी सहजता और खूबसूरती से बताई मन व्यथा..

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  13. achcha lagi aapki yah post..... blog par pahli baar aaya .. achcha laga... bas likhte rahiye....

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  14. खिड़की में रखे मनी प्लांट की पत्तियों में मुझे तुम्हारी सूरत दिखाई दे जाती है यदा कदा ...और मैं हरे रंग का वह पात्र बन जाती हूँ जिसमे तुम्हारी जड़ें होने के बावजूद नहीं दिखाई पड़ती...behad khoobsoorat.

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  15. वर्षा के ब्लॉग से होता हुआ
    अकस्मात इधर आना हुआ
    और मैं चौंक गया .....इतना बेहतर ब्लॉग.
    आपका ब्लॉग बेहद पठनीय है.
    ऐसे इमानदार ब्लॉगर कम ही हें...इस ब्लॉग जगत में.
    मेरा आदर स्वीकार करें.

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  16. सिंदूर किसी बुझते हुए सूरज से अलग रंग में नही खिल पाता, जरीवाले कपड़े कैंचुली छोड़ते से दीखते... बस ऐसे ही रंग रह गए हैं कबूतर खाने से घर में,

    kahan thii aap ab tak..adbhut vyanjana se bhari bhasha aur vichar pragatisheel.

    badhai

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  17. लेख के अंत में दिया गया शेर लाजवाब करगया। बेहद आसान से लफजों में इतनी गहरी बात कहना बेहद मुश्कि होता है।
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    तस्‍लीम
    साइंस ब्‍लॉगर्स असोसिएशन

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  18. बहुत अच्छा लगा आप का लिखा पढना..

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